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अनेकान्त दृष्टि : जिस प्रकार सरल और वक्र मार्ग से प्रवाहित होने वाली भिन्न-भिन्न नदियां अन्त में एक ही महासागर में विलीन हो जानी हैं; उसी प्रकार भिन्न-भिन्न रुचियों के कारण उद्भव होने वाले समस्त दर्शन एक ही अखण्ड सत्य में अन्तर्भूत हो जाते हैं । उपाध्याय यशोविजयजी भी इस समन्वयवादी दृष्टिकोण को लेकर अपने 'ज्ञान सार' ग्रन्थ में एक परम सत्य का संदर्शन कराते हुए कहते हैं
"विभिन्ना अपि पन्थानः,
समुद्र सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म,
प्राप्नुवत्येकमयक्षम् ॥" मैं आप से कह रहा था, जो समन्वयवादी हैं, वे सर्वत्र सत्य को देखते हैं । एकत्व में अनेकत्व देखना और अनेकत्व में एकत्व देखना, यही समन्वयवाद है, स्याद्वाद सिद्धान्त, विचार पद्धति है, अनेकान्त दृष्टि है। वस्तु तत्व के निर्णय में मध्यस्थ भाव रखकर ही चलना चाहिए। मताग्रह से कभी सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। समन्वय दृष्टि मिल जाने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि परिमित शास्त्रों के आरटन से भी कोई लाभ नहीं । स्याद्वादी व्यक्ति सहिष्णु होता है। वह राग-द्वष की आग में झुलसता नहीं । सब धर्मों के सत्य तत्व को आदर भावना से देखता है। विरोधी को सदा उपशमित करता रहता है । उपाध्याय यशोविजय जी कहते हैं
"स्वागमं रागमात्रेण,
दुषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा,
किन्तु मध्यस्थया दृशा ॥" हम अपने सिद्धान्त ग्रन्थों का--यदि वे बुरे भी है, तो इस लिए आदर नहीं करेंगे, कि वे हमारे हैं । दूसरों के सिद्धान्त-यदि वे निर्दोष हैं, तो इसलिए परित्याग नहीं करेंगे, कि वे दूसरों के हैं। समन्वय की दृष्टि से, सर्व-धर्म समानत्व के विचार से जो भी जीवन-मंगल के लिए उपयोगी होगा, उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे और जो उपयोगी नहीं है, उसे छोड़ने में जरा भी संकोच नहीं करेंगे । अनेकान्तवादी अपने जीवन व्यवहार में सदा
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