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________________ ८८ अमर-भारती समन्वयवाद के मर्म-वेत्ता आचार्य ने कहा-"चिन्ता की बात क्या ? जोहरी के पास अनेक रत्न बिखरे पड़े रहते हैं। उस के पास यदि खरे-खोटे की परख के लिए कसौटी है, तो भय-चिन्ता की बात नहीं। जन-जीवन के परम पारखी परम प्रभु महावीर ने हम को परखने की कसोटी दी है, कला दी है। धर्म कितने भी हों, पन्थ कितने भी हों, विचार कितने भी हों, सत्य कितने भी क्यों न हों ? भय और खतरे की बात नहीं। वह कसोटी क्या है ? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य ने कहा-समन्वय-दृष्टि, विचार पद्धति, अपेक्षावाद, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद ही वह कसौटी है, जिस पर खरा, खरा ही रहेगा और खोटा, खोटा ही रहेगा। जिन्दगी को राह में फूल भी है और कांटे भी ? फूलों को चुनते चलो और काँटो को छोड़ते चलो। सत्य का संचय करते रहो, जहाँ भी मिले और असत्य का परित्याग करते रहो, भले ही वह अपना ही क्यों न हो ? विष यदि अपना है, तो भी मारक है और अमृत यदि पराया है, तो . भी तारक है । आचार्य हरिभद्र के शब्दों में कहूँ, तो कहना होगा "युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।" जिसकी वाणी में सत्यामृत हो, जिसका वचन युक्ति-युक्त हो, जिसके पास सत्य हो, उसके पास संचय में कभी संकोच मत करो। सत्य जहाँ भी हो, वहाँ सर्वत्र जैन धर्म रहता ही है । वस्तुतः सत्य एक ही है। भले ही वह वैदिक परम्परा में मिले, बौद्ध धारा में मिले या जैन धर्म में मिले । प्रत्येक दार्शनिक परम्परा भिन्न-भिन्न देश, काल और परिस्थिति में सत्य को अंश रूप में, खण्ड रूप में ग्रहण करके चली है। पूर्ण सत्य तो केवल एक केवली ही जान सकता है। अल्पज्ञ तो वस्तु को अश रूप में ही ग्रहण कर सकता है। फिर यह दावा कैसे सच्चा हो सकता है कि मैं जो कहता हूँ, वह सत्य ही है और दूसरे सब झूठे है ? वैदिक धर्म में व्यवहार मुख्य है, बौद्ध धर्म श्रवण-प्रधान है, और जैन धर्म आचार लक्षी है। वैदिक परम्परा में कर्म, उपासना और ज्ञान को मोक्ष का कारण माना है, बौद्ध धारा में शील, समाधि और प्रज्ञा को सिद्धि का साधन कहा है, और जैन-संस्कृति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का हेतु कहा गया है । परन्तु सबका ध्येय एक ही है-सत्य को प्राप्त करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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