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________________ यो वै भूमा तत्सुखम् १९ हैं। कभी सुख है, तो कभी दुःख है। आज सुख है, तो कल दुःख है। आज शान्ति के मधुर क्षणों में झूम रहा है, तो कल अशान्ति की विषम ज्वालाओं में झुलस रहा है । मानव की चाह है कि उसके जीवन पट में दुःख, दैन्य और दरिद्रता के काले धागे न हों, हों केवल सुख, शान्ति और समृद्धि के सुनहरी धागे । सम्पूर्ण जीवन - वस्त्र सुख और समृद्धि के ताने-बाने से बुना हो । भारतीय दर्शन शास्त्र में सुख-दुःख की सूक्ष्म मीमांसा की गई है। परन्तु एक वाक्य में उसे यों कहा जा सकता है-“अनुकूलता सुख है और प्रतिकूलता दुःख ।" भारतीय दर्शन की विचार परम्परा इस तथ्य में अमित, अमिट व अडिग विश्वास लेकर चली है, कि इस आदिहीन और अन्तहीन अनन्त जगत में जहाँ दुःख और दुःख के कारण बिखरे पड़े हैं, वहाँ सुख और सुख के उपकरण भी प्रस्तुत हैं। भारत के जीवनशास्त्री इस सत्य-तथ्य को स्पष्ट शब्दों में उद्घोषणा करते हैं-"मानव अपने जीवन के जिन पूण्य पलों में दुःख और दुःख के कारणों से विमुख हो, सुख और सुख के कारणों को अपना लेगा, तब वह जीवन में सुख, शान्ति और सन्तोष का अनुभव कर सकेगा। उसका जीवन शान्त और समृद्ध बन सकेगा, जीवन में सरसता, मधुरता और समरसता का आनन्द ले सकेगा। भारतीय विचारधारा मूल में एक होकर भी हजारों-हजार धाराओं में प्रवाहित होकर अन्त में एक ही महासागर में विलीन हो जाती है। जीवन के संलक्ष्य के सम्बन्ध में मतभेद नहीं । विचार भेद है, केवल साधना के उपकरणों में । साधकों का ध्येय एक है, परन्तु हर साधक अपनी राह अपनी शक्ति को तोल कर ही बनाता है। “दुख है और उससे छुटकारा पाना है।" यह भारतीय दर्शन शास्त्र का मूल महाश्वर है। दुःखों से मुक्ति कैसे पाना-यह एक प्रश्न उलझन का अवश्य रहा हैं, फिर भी मैं कहता हूँ, कि इस विचार चर्चा की गहराई में जब आप उतरेंगे, तब इसमें भी आपको समन्वय मिल सकेगा। जैन दर्शन जीवन के हर क्षेत्र में अनेकान्त और समन्वय को लेकर चला है । उपनिषद्-काल के एक ऋषि से पूछा गया-"भगवान् ! इस समूचे संसार में दुःख हो दुःख है, या कहीं सुख भी ? यदि सुख भी है, तो वह कैसे मिले ? ऋषि ने शान्त और मधुर स्वर में कहा-सुख भी है, शान्ति भी है, आनन्द भी है । “यो वै भूमा तत्सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति ।" जीवन में सुख अवश्य है, किन्तु वह एकत्व में नहीं, समग्रत्व में सन्निहित है। जो भूमा है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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