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________________ २० अमर भारती जो विराट है, जो महान् है और जो जन-जीवन में समग्रत्व है, वह सुख है, वह शान्ति है, वह आनन्द है ।" परन्तु याद रखो, सुख की निधि समग्रत्व में है, अपनत्व में नहीं । जहाँ मन का दायरा छोटा है, वहाँ सुख नहीं है । वहाँ है— दीनता, दरिद्रता और दुःख । मानव की विराट भावना में सुख है और उसके क्षुद्र विचारों में दु:ख दैन्य है । मानवतावादी विराट भावना में विभोर होकर एक ऋषि कहता है"यथा विश्वं भवत्येक नीडम् ।" सारा संसार और यह विराट लोक क्या है ? यह एक घोंसला है। समूचा संसार एक घोंसला है और हम सब पक्षी हैं । इस नीड में अलग-अलग दीवार नहीं, हदबन्दी नहीं, बाड़ाबन्दी नहीं । जिसका जहाँ जी चाहे बैठे और चहके । इतनी विराट भावना, इतना विशाल मानस, जिस समाज को और जिस देश को मिला हो - वही सुख, शान्ति और आनन्द के झूले पर झूल सकता है । सुख का अक्षय भण्डार मानव- समग्रत्व की चेतना की जागृति में है । यह समाज और यह राष्ट्र क्या है ? यह भी एक नीड है, एक घोंसला है, जिसमें सब मानव पक्षी मिल-जुल कर रहते हैं । ऋषि की भाषा में यही सुख का सही रास्ता है । भगवान महावीर ने कहा - " संचय मत करो, संचय मत करो, जो पाया है, उसे समेट कर मत बैठो । संविभाग जीवन में सुख की कुंजी है ।" जन जागरण और जन जीवन की चेतना के अग्रदूत भगवान् महावीर ने कहा है- "सुख और दुःख कहीं बाहर नहीं हैं, वे तो मानव के मन की अन्तर पड़त में लुके-छुपे रहते हैं ।" जब मानवत्व की विराट चेतना “मैं और मेरा" के घेरे में बन्द हो जाती है, मानव का विराट मन "मैं ओर मेरा" के तंग दायरे में जकड़ जाता है, तब संकटों के काँटे मानव के चारों ओर बिखर जाते हैं, जिनमें वह जाने-अनजाने पल-पल में उलझता रहता है । यह मैं हूँ, यह मेरा है, मैं स्वामी हूँ और सब मेरे दास हैं । यह दानवी भावना ही अन्तर में दुःखों को पैदा करती है । जहाँ मैं और मेरे का आसुरी राग महाभीम स्वर में अलापा जा रहा हो, वहाँ मानव मन का प्रसुप्त देवत्व को जगाने वाला और जन-जन के मन को झंकृत करने वाला सर्वोदयवादी मधुर मन्द संगीत कौन सुने ? फिर वहाँ सुख, शान्ति और सन्तोष का सागर कैसे लहरा सकता है ? मानव के मन में स्वार्थ के अतिरेक की जब गहरी रेखा अंकित हो जाती है, तब उसकी दृष्टि में यह सारा संसार दो विभागों में विभक्त होने लगता है - " एक स्व और दूसरा पर, एक अपना और दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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