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________________ अमर भारती अभय और अहिंसा की साधना में संसार के हर एक प्राणी के सुख और आनन्द की सुरक्षा की जाती है । ५८ मैं समझता हूँ अब आप जैन धर्म की अभय भावना, अहिंसा, समता और दया करुणा के मूल स्रोत से लेकर उसकी अभिव्यक्त धारा तक के इतिहास को समझ गये होंगे । मैं आपसे कह रहा था कि कषाय युक्त से कषाय मुक्त बनने के लिए, आत्मा के शाश्वत सुख और आनन्द को प्राप्त करने के लिए जीवन में अभय की आराधना और समता की साधना करना आवश्यक है । समता का अर्थ है, स्व भिन्न जीवों के प्रति समभाव रखना । समभाव के आचरण से ही अपने शरीर तक सीमित रहने वाला आत्म-भाव विश्व व्यापी होकर "आत्मवत् सर्व भूतेषु" के रूप में प्रकट होने लगता है । समत्व योग की साधना से मनुष्य का संकुचित आत्मभाव विराट बनता जाता है । जब मनुष्य समत्व के सिद्धान्त को हृदयंगम कर लेता है, तब वह अभय और अहिंसा की साधना में स्थिर हो जाता है । दूसरे के दिल का दर्द जब अपने दिल का दर्द बन जाता है, तब समझ लेना चाहिए कि अब जीवन में अभय, अहिंसा और दया का मधुर स्रोत बह निकलने लगा है । निष्ठुर हृदय सूखी रेत के तुल्य है । दयाहीन मानव वस्तुतः मानव न होकर मानव के शरीर में दानव ही होता है । दया जैन धर्म का प्राण है। दया सम्यक्त्व की सच्ची कसोटी है । दया जीवन विकास का अनन्य साधन है । दयाशील मानव दूसरे को कभी दुख में नहीं देख सकता, दूसरे को संकट में नहीं देख सकता । महापुरुषों का हृदय दया के अमृत से ओत-प्रोत रहता है। आपने सुना ही होगा कि एक तापस ने गोशाला पर तेजोलेश्या फेंकी, तो वह आर्तनाद करने लगा । दया-प्रवण महावीर से नहीं गई और उन्होंने शीतल लेश्या के प्रयोग से रक्षा की । बौद्ध साहित्य में भी एक सुन्दर प्रसंग आता है कि देवदत्त ने हंस को बाण मारा । वह हंस बाण से विद्ध होकर करुणाशील गौतम की गोदी में जा गिरा । देवदत्त ने अपने शिकार को मांगा, पर दयाशील गौतम ने नहीं दिया। दोनों में संघर्ष खड़ा हो गया । अन्त में दोनों का यह संघर्ष शाक्यों Jain Education International उसकी यह दशा देखी गोशाला के प्राणों की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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