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________________ मानवता की कसोटी : दया ५७ प्रत्येक आत्मा सुख व आनन्द के लिए प्रतिपल प्रयत्नशील है । जैन दर्शन का कहना है कि जब आत्मा को चित् शक्ति का पूर्ण विकास होगा, तब उसमें आनन्द और शाश्वत सुख भी स्वतः समुत्थित होगा। जैन दर्शन के अनुरूप कषाय मुक्त आत्मा में ही सत्, चित् और आनन्द का पूर्ण विकास सम्भव होता है । कषाय मुक्त आत्मा ही परमात्मा व सिद्ध होता है । सत्, चितु और आनन्द की पूर्ण समष्टि का नाम ही तो परमात्मा या सिद्ध है । अभय, अहिंसा और समता की साधना इसी परमपद को प्राप्त करने के लिए की जाती है । जीवों पर अहिंसा दया और करुणा का उपदेश इसलिए नहीं किया जाता कि वे जीव हैं, चेतन हैं, प्राणवान हैं । अपितु इस हेतु से किया जाता है कि सभी जीव सुख चाहते हैं, सभी जीव आनन्द के अभिलाषी हैं । जैन धर्म के अनुसार जोव के आनन्द और सुख को क्षति पहुँचाना ही हिंसा है । उस हिंसाजन्य पाप से स्वयं बचना और दूसरों को बचाना, यही वीतराग धर्म में अभय, अहिंसा, समता और अनुकम्पा है । अभी मैं अभय, अहिंसा और समता के साथ अनुकम्पा दया और करुणा का नाम लेकर गया हूँ । मेरे विचार में दया मनुष्य का सर्वप्रथम गुण है । किसी भी प्रकार का किसी के साथ पूर्व सम्बन्ध न होने पर भी दूसरे के दुःख दर्द के प्रसङ्ग पर जो कोमल भावना मनुष्य के मन में पैदा होती है और जो मनुष्य के कठोर हृदय को द्रवित कर देती है, उसी का नाम दया, करुणा या अनुकम्पा है । यह दया ही मानव धर्म की जड़ है । सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है "दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । तुलसी दया न छांड़िये, जब लग घट में प्राण ॥ " धर्म का मूल दया ही है इस तथ्य में विचारशील मनुष्यों के दो मत नहीं हो सकते हैं । सम्यक्त्व के पाँच अंगों में दया व अनुकम्पा भी एक अंग है । जो हृदय दया द्रवित नहीं वहाँ धर्म भावना पनप ही नहीं सकती । अभय और अहिंसा का व्यक्त स्वरूप ही दया और अनुकम्पा है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में श्रावक के २१ गुणों में दयाशीलता को भी एक विशिष्ट गुण कहा है । दया से परिपूर्ण हृदय सुख का स्रोत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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