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________________ मानवता की कसौटी : दया विचार पक्ष का यह एक परम सत्य सिद्धान्त है कि संसारी जीवन हिंसा-संकुल है। चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते और सोते-जागते जीवन के हर पहलू में हिंसा व्यापी रहती है। फिर भी हिंसा मानव जीवन का व्रत नहीं बन सकी। व्रत-कोटि में तो अहिंसा ही युग-युग से व्रत पद से अभिहित होती चली आ रही है। वीतराग धर्म में जीवन की सर्वोच्च साधना अभय, अहिंसा और समता रही है । संवेदना, अनुभूति एवं अमृतत्व के साम्य दर्शन से अहिंसा तथा साम्य भावना समुत्थित होती है। अनावेग की साधना ही जैन धर्म की भाषा में सच्ची अहिंसा है। अभी मैं आपके समक्ष अभय, समता और अहिंसा की मूल भावना की परिभाषा कर रहा था। परन्तु अब जरा अभय और अहिंसा के दार्शनिक पहलू पर भी विचार कर लें। दार्शनिक दृष्टिकोण से मानव जीवन में अहिंसा का क्या स्थान है ? भारत के सभी धर्मों ने और सभी दर्शनों ने आत्मा का शुद्ध स्वरूप सत्, चित् और आनन्द कहा है । सत् का अर्थ होता है, सत्ता । वह तो जगत की जड़भूत वस्तुओं में भी उपलब्ध है, परन्तु वहाँ चित् नहीं हैं, ज्ञान नहीं हैं। कषाय युक्त आत्मा में सत् भी है और चित् भी है, किन्तु आनन्द नहीं है, शाश्वत सुख की स्फुरणा नहीं है। और यह एक सत्य सिद्धान्त है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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