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दीपावली और सहधर्मी सेवा १५१ भारतवर्ष के जैन समाज का कर्तव्य, आज उसकी आँखों के समक्ष प्रदीप्त सूर्य प्रकाश के समान पूर्ण रूप से स्पष्ट है-अब बहुत शीघ्र ही लिखे जाने वाले इतिहास की तैयारी में है। इसमें क्या लिखा जाएगा, यह बताने के लिए आज का जैन समाज पूर्णतया स्वतन्त्र है। जैन समाज के पास साधनों की कमी नहीं है । वह संगठित होकर उत्साह भरे हृदय से यदि कुछ करना चाहे, तो सब कुछ कर सकता है ।
___ हजारों की संख्या में सर्वथा निराश्रित हुई जैन जनता के जीवनमरण का प्रश्न है । उसे अब सर्वथा नये सिरे से जीवन यात्रा प्रारम्भ करनी है। भोजन, वस्त्र और बसाने आदि की अपनी अनेक-विध दुरूह समस्याओं को हल करना, अब उन लोगों के बस की बात नहीं है । साधारण-से दीक्षा और रथ-यात्रा आदि के प्रसंगों पर लाखों की होली खेलने वाला जैन समाज यदि अपना दायित्व अनुभव करे, तो यह सब हिमालय जैसा महान् कार्यभार आसानी से उठाया जा सकता है। जो जैन समाज पशु-पक्षियों की दया पाल सकता है और भट्टियाँ बन्द कराकर एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा का भार उठा सकता है, क्या वह अपने धर्म बन्धुओं की रक्षा और सेवा का कर्तव्य नहीं कर सकता ? अवश्य कर सकता है ।
जैन धर्म में साधर्मी-वात्सल्य का वहुत बड़ा महत्व माना गया है। जैन शास्त्रों की भाषा में श्रीसंघ को साक्षात त्रिलोक नायक तीर्थंकर देव के समान माना गया है। श्रीसंघ की सेवा, तीर्थंकर देव की सेवा है। आज दुर्भाग्य से ही सही, परन्तु श्रीसंघ की सेवा का महान् अवसर उपलब्ध हुआ है। मैं समझता है, 'जैन समाज अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होगा। सौ-दो सो की साधन सम्पन्न विरादरी को भोजन करा देना और प्रभावना वितीर्ण कर देना ही साधर्मी बात्सल्य नहीं है। सच्चे साधर्मी वात्सल्य की परीक्षा का समय तो आज आया है। देखना है, कितने थैलीशाह अपनी थैलियों के मुंह खोलते हैं ?
____ मैं अपने सहधर्मी मुनिराजों के चरणों में भी नम्र निवेदन करना चाहता है कि आप भी अपनी समस्त साधन शक्ति का प्रवाह संघ रक्षा की ओर प्रवाहित कर दें। अबकी वार दीपमालिका के महापर्व पर भगवान महावीर के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करें कि इस वर्ष न किसी बड़ो दीक्षा का ठाठ-बाट रचायेंगे, न तपश्चरण के महोत्सवों के फेर में पड़ेंगे । जैन धर्म
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