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________________ मानव-मन का नाग पास : अहंकार मानव जब बड़प्पन के पहाड़ की ऊँची चोट पर चढ़ कर अपने आसपास के दूसरे मानवों को तुच्छ व हीन मानने लगता है, तब उसकी इस अन्तर की वृत्ति को शास्त्र भाषा में अहंकार, अभिमान और दर्प कहते हैं। अहंत्ववादी मानव परिवार में, समाज में और राष्ट्र में अपने से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति को महत्व नहीं देता। दर्प-सर्प से दष्ट व्यक्ति कभी-कभी अपनी शक्ति को बिना तोले, बिना नापे कार्य करने की धृष्टता करता है। परन्तु अन्त में असफलता का ही मुख देखता है। क्योंकि उसके अन्तर मन में अधिकार-लिप्सा और महत्वाकांक्षा की वृत्ति इतनी प्रबलतम हो उठती है कि वह दूसरे के सहयोग तथा सहकार का अनादर भी कर डालता है। मनुष्य जब अहंकार के नशे में चूर-चूर रहता है, तब उसका दिल व दिमाग अपने काबू में नहीं रह पाता । अहंकारी मानव के जीवन की यह कितनी विकट बिडम्बना है ? मनुष्य अपने शरीर की बड़ी से बड़ी चोट को बरदास्त कर जाता है, किन्तु वह अपने अन्तर मन के गहरे कोने में पड़े अहंत्व पर कोमल कुसुम के आघात को भी सह नहीं सकता । मनुष्य का यह अहंभाव उसके जीवन के अनेक प्रसंगों पर अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता रहता है। मानव के मन का अभिमान एक चतुर चालाक बहुरूपिया के तुल्य है । बहुरूपिया एक ही दिवस में अनेक बार अनेक रूपों को बदल-बदल कर बाजार में आता है और हजारों हजार जन नयनों को धोका दे, भाग जाता है । मानव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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