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बरसो मन, सावन बन बरसो १३ मूल बीज यही है । अनेक प्रयत्न भी किए और कर रहे हैं, परन्तु अभी तक समस्या सुलझी नहीं है । बिरादरी दो टुकड़ों में बँटी हुई है । इसी कारण धर्म और समाज का कोई भी उत्थान का कार्य हम नहीं कर पाते हैं ।
इस सज्जन की बात में कितना दर्द था ? कितना था, उसके दिल में तुफान ? मैं समझता हूँ, कि इन रगड़ों का, झगड़ों का, टंटों का और समस्याओं का अन्त तभी होगा, जब मानव का मन क्षुद्र घेरों से ऊपर उठकर विराट भावना के प्रवाह में गतिशील बनेगा । अपनी सुख-समृद्धि में फूलेगा नहीं और दूसरों के विकास में झुलसेगा नहीं । गये-बीते युग की इन गलीसड़ी दीवारों से ऊपर उठकर जब मानव स्नेह, सद्भाव और सहकार की मृदुल भावनाओं से उत्प्रेरित होकर अपने मन को विराट और उदात्त बना लेगा । अपनी बुद्धि के द्वारों को नये विचारों के प्रकाश के लिए खुला रखेगा और अपने मानस के सरस भाव कणों को जन-जन में बिखेर देगा, तब वह सुखी, समृद्ध और बलवान बनता चला जाएगा ।
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वर्षा काल सरसता और मधुरता का महान् सन्देश वाहक है । इस सुहावनी ऋतु में जैसे बहिर्जगत् में सरसता, सुन्दरता और मधुरता का अभिवर्षण होता रहता है, वैसे ही मानव के अन्तर जगत में भी स्नह की सरसता का, सद्भाव की मधुरता का और सहकार की सुन्दरता का अजस्र, अमृतमय अभिवर्षण तभी सम्भव है, जब वह अपनी मनोभूमि में से अर्थहीन, शुष्क और निर्जीव विधि-निषेधों के तूफान और अन्धड़ों को शान्ति, तथा विवेक बल से बाहर निकाल फेंकने में समर्थ हो सकेगा, तभी वह युगयुग से सूखी अपनी जीवन घाटियों में मन की सरस और सुखद बरसात बरसा सकेगा ।
समता
लाल भवन, जयपुर
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४-७-५५
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