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मानव मन का नाग पास : अहंकार १५ मन के अन्तराल में छुपा अहंत्व भाव भी मानव की चेतना को धोका देता है, छलना और माया करता है । जन मंच पर कभी वह क्रूर बनकर उपस्थित होता है, कभी दया प्रवण होकर प्रस्तुत होता है । कभी वह शत्रु बन बैठता है और कभी वह अपने स्वार्थ के अतिरेक की पूर्ति के लिए परम मित्र के रूप में प्रकट होता है । यों वह अपने आप में एक होकर भी अनेक रूप-रूपाय है । अणु होकर भी महान् है, लघु होकर भी विराट है।
__ मनुष्य के अभिमान-केन्द्र अनेक है, जिनमें शरीर पहला है । मनुष्य अपने शरीर के सौंदर्य पर, रूप-लावण्य पर और रंग-रूप पर फूला नहीं समाता । वह भूल जाता है, कि यह रूप-विलास संसार सागर का अस्थिर जल बुद-बुद है । सनत्कुमार चक्रवर्ती अपने अपार रूप वैभव पर कितना गर्वित था ? स्वर्गवासी देव और देवों का राजा इन्द्र भी उसके रूप-सौंदर्य पर मुग्ध था । रूप और सौंदर्य अपने आप में बुरा नहीं, बुरा है रूप का मद, सौंदर्य का अहंकार । सनत्कुमार ने अपने जीवनकाल में ही अपने सौंदर्य कुसुम को खिलाने और महकते देखा और देखा उसे मुरझाते व सड़ते । जीवन और जगत की वह कौन वस्तु है, जिस पर मनुष्य स्थिरता का अभिमान टिका सके ।
रूप-सौंदर्य की तरह मनुष्य अपने नाम को भी अजर-अमर देखना चाहता है । नाम की लालसा मनुष्य को अशांत रखती है। नाम के लिए, यश कीर्ति के लिए और ख्याति के लिए मनुष्य अपने कर्तव्य और अकर्तव्य की भी मर्यादा-रेखा का उल्लंघन करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता है । उस पर कभी गिला नहीं करता।
इस सम्बन्ध में मैं आपको जैन इतिहास की एक सुन्दर कहानी सुनाता हूँ ! भारतवर्ष का सर्व प्रथम महान सम्राट भरत दिगविजय करताकरता ऋषभकुट पर्वत पर पहुंचता है और वहाँ के विशाल शैल शिला-पट्टों पर अपना नाम, अपना परिचय अंकित करने की प्रबल लालसा उसके मानस में जाग उठी । जरा गौर से देखा, तो मालूम पड़ा कि यहां परिचय तो क्या ? 'भरत' इन तीन अक्षरों को बैठाने की भी जगह नहीं । हजारों और लाखों चक्रवतियों ने अपना-अपना नाम जड़ा है- इन शिला-पट्टों पर । सोचा-"किसी का नाम मिटाकर अपना नाम टांक दं।" ज्योंही भरत का हाथ उठा, किसी का एक नाम मिटा और अपना 'भरत' नाम उत्कीर्ण हुआ, त्योंही भरत के हृदय गगन में विवेक-बुद्धि की बिजली
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