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१६ अमर-भारती कौंधी-जिसके ज्ञान प्रकाश में भरत ने पढ़ा-- "आज तूने किसी का नाम मिटाया है, कल कोई तेरा भी नाम मिटाने वाला पैदा होगा।" भरत की अन्तर चेतना जागी और विचार किया-यह अहंत्व-भाव की मोह मोदकता, बड़ी बुरी बला है । भरत, इस विश्व के विराट पट पर किसका नाम अमर व अमिट रहा है ?"
धन का अहंकार भी मानव के मन की जकड़ता है, बांधता है । मानवी मन जब असन्तोष की लम्बी सड़क पर दौड़ता है, तब हजार से लाख, लाख से करोड़ और फिर आगे अर्ब-खर्ब के स्टैण्ड पर भी वह ठहर नहीं पाता । धन का नशा, सब नशों में भयंकर नशा है। धर्म चेतावनी देता है - "धन भले रखो, पर धन का नशा मत रखो।" रावण की लंका और यादवों की द्वारिका-सोने की होकर भी खाक की हो गई। रावण का अभिमान और यादवों का धन मद उन्हें वासना के महासागर में ले डूबा ।
हिन्दी साहित्य का अमर कवि बिहारीलाल आप के राजस्थान का ही था, जिसने एक बार आपके आमेर नरेश मानसिंह की नारी आसक्ति पर-"अली कलि ही सौं बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल"-कह कर करारी चोट मारी थी। वही महाकवि बिहारीलाल मानव मन में प्रसुप्त धनलालसा पर जोरदार फबती कसता कहता है
"कनक कनकतें सौ गुनी,
मादकता अधिकाय । या खाये बौरात है,
वा पाये बौराय ॥" कनक का अर्थ सोना भी होता है और धतूरा भी । धतूरे को खाकर उसके नशे में मनुष्य बोराने लगे, बड़-बड़ाने लगे, तो इस में ताज्जुब की कोई बात नहीं । आश्चर्य की बात तो यह है, कि मनुष्य, धन के हाथ में आते ही बोराने लगता है, बड़बड़ाने लगता है। कवि कहता है-“धतूरे की अपेक्षा सोने का नशा, धन का मद, भयंकर है, अधिक घातक है । धन का अभिमान मानव जीवन के लिए एक अभिशाप है।
__ मनुष्य का अभिमान इतना विराट बन गया है कि वह भौतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जन-जीवन के आध्यात्मिक पावन-पारावार में भी उसने अपनी कालिमा घोल दी है। सत्कर्म व धर्म-क्षेत्र में भी
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