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अमर भारती
वत्स ! तुम्हारी बुद्धि धर्म में रमे । तुम अपने जीवन के क्षेत्र में कहीं पर भी रहो, परन्तु अपने धर्म, अपने सत्कर्म, अपने शुभ संकल्प और अपने जीवन की पवित्रता को न भूलो। जीवन के संघर्ष में उतरते ही तुम्हारे मार्ग में विकट संकट, विविध बाधाएँ और अनेक अड़चनें भी आ सकती हैं, किन्तु उस समय भी तुम अपने मन में धैर्य रखना, अपने धर्म के प्रति वफादार रहना, अपने सदाचार के प्रति वफादार रहना तथा अपने जीवन की पवित्रता, जो वंश परम्परा से तुम्हें प्राप्त है और जो भारत की संस्कृति का मूल है— उस धर्म को तुम कभी न भूलना और अपनी बुद्धि को सदा धर्म के संस्कारों से संस्कृत करते रहना । एक ओर शूली की नोंक हो और दूसरी ओर धर्म त्यागने की बात हो, तो तुम शूली की पैनी नोंक पर चढ़ जाना, परन्तु अपने धर्म को कभी मत छोड़ना । जीवन में धन बड़ा नहीं, धर्म बड़ा है | मान बड़ा नहीं, धर्म बड़ा है । अपनी बुद्धि को धर्म में लगा दो, धर्म में रमा दो ।
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आचार्य आगे फिर कहता है - " मनस्ते महदस्तु च - वत्स ! तेरा मन विराट हो, तेरा हृदय विशाल हो ।" भारत का दर्शन और धर्म मानव के मन को विराट बनने की प्रेरणा देता है । मनुष्य के मन में जब छोटापन और हृदय में जब क्षुद्रता पैठ जाती है, तब वह अपने आप में घिर जाता है, बन्द हो जाता है । उसके मानस का स्नेह रस सूख जाता है, उसके मन में किसी के भी प्रति स्नेह और सद्भाव नहीं रहता । हृदय की क्षुद्रता और लक्ष्य की संकीर्णता मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा दोष है । इस दोष के कारण ही मनुष्य अपने परिवार में घुल-मिल नहीं पाता, वह घर में जब जाता है, तो सबके चेहरों की हंसी गायब हो जाती है । औछे विचारों का मनुष्य अपने समाज और राष्ट्र के जीवन में भी मेल-मिलाप नहीं साध सकता । उसकी संकीर्णता की दीवार उसे विश्व के विराट तत्व की ओर नहीं देखने देती । भारत का दर्शन और भारत का धर्म मानव मन की इस संकीर्णता को, क्षुद्रता को और अपनेपन को तोड़ने के लिए ही आचार्य के स्वर में कहता है - " मनस्ते महदस्तु च ।" मनुष्य तेरा मन महान् हो, विराट हो। उसमें सबके समा जाने की जगह हो । तेरा सुख सबका सुख हो । तेरे अन्तर मन में परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति मंगलमयी भावना हो । कल्याण की कामना हो । अपनेपन की सीमा में ही तेरा संसार सीमित न हो, समग्र वसुधा तेरा कुटुम्ब हो, परिवार हो ।
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