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________________ भारत की विराट आत्मा २ भारत में शिक्षा और दीक्षा दोनों साथ-साथ चला करती थी, जन जीवन के ये दोनों अविभाज्य अंग माने-समझे जाते थे । जन जीवन की वेधशाला में विज्ञान के साथ उसका प्रयोग भी चलता था । प्राचीन भारत में शिक्षा के बड़े-बड़े केन्द्र खुले हुए थे, जिन्हें उस युग की भाषा में 'गुरुकुल' कहा जाता था । आज जिन्हें आप हम कॉलेज और यूनिवर्सिटी कहते हैं । आज के ये शिक्षा केन्द्र नगर के कोलाहल संकुलित वातावरण में चलते हैं, परन्तु वे गुरुकुल वनों और जंगलों के एकान्त व शान्त वातावरण में चलते थे । मानव के नैतिक जीवन की पावनता की सुरक्षा जितनी प्रकृति माता की मंगलमयी और मोदभरी गोद में रह सकती है, वैसी भोग-विलास से भरे - पूरे नगरों में नहीं । गुरुकुलों के पुण्य प्रसंगों में आचार्य और उनके शिष्य एक साथ रहते-सहते, एक साथ खाते-पीते और एक साथ उठ-बैठते थे । आचार्य अपने शिष्यों को जो भी शिक्षा देता, वह आज की तरह पोथीपन्नों के बल पर नहीं, बल्कि वह ज्ञान को आचरण का रूप देता था, जिसका शिष्य अनुसरण करते । शिक्षा को दीक्षा में उतार कर बताया जाता था । ज्ञान को कर्म में उतारा जाता था । बुद्धि और हृदय में समन्वय साधा जाता था । उस युग का आचार्य या गुरु अपने शिष्यों से या अपने छात्रों से स्पष्ट शब्दों में चेतावनी और सावधानी देता हुआ कहता था" यान्यस्माकं सुचरितानि तान्येव सेवितव्यानि नो इतराणि । " मेरे प्रिय छात्रों ! मैं तुमसे स्पष्ट शब्दों में जीवन का यह रहस्य कह रहा हूँ कि तुम मेरे सुचरितों का और सद्गुणों का अनुसरण करना, परन्तु दुर्बलता और कमजोरी का अनुसरण मत करना। जीवन में जहाँ कहीं भी सद्गुण मिले ग्रहण करो और दोषों की ओर मत देखो । ये हैं, वे प्राचीन भारत की शिक्षा-दीक्षा के जीवन-सूत्र, जो देश और समाज की बिखरी शक्ति को संयत करते हैं और राष्ट्र की आत्मा को विशाल बनाते हैं । मैं आपसे कह रहा था, कि उस युग का भारत इतना विराट क्यों था ? किसी भी देश की विराटता वहाँ के लम्बे-चौड़े मैदान, ऊँचे गगन - चुम्बी गिरि और विशाल जनमेदनी पर आधारित नहीं होती । उसका मूल आधार होता है - बहाँ के जन जीवन में धर्म की भावना और मनों की विराटता । छात्रजन गुरुकुल की शिक्षा को पूरी करके अपने गृहस्थ जीवन में जब वापिस लौटता, तब अपने दीक्षान्त भाषण में आचार्य कहता था"धर्मे धीयतां बुद्धिर्मनस्ते महदस्तु च । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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