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भक्त से भगवान १३१ और मरण अनन्त काल से होता चला आ रहा है। प्रभो ! मुझे जीवनकल्याण का सही मार्ग बताइए। ___मैं अभी आपसे भक्त और भगवान के सम्बन्ध की चर्चा कर रहा था । जैन धर्म और जैन दर्शन द्वत-मार्ग को पसन्द नहीं करता। वह द्वैतता के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता । जैन धर्म यह नहीं मानता कि भक्त भक्त ही रहेगा, वह अनन्त काल तक संसार में भटकता ही रहेगा। वह सदा दास हो बना रहेगा, कभी स्वामी नहीं बन सकेगा? इस प्रकार दास्य भक्ति में जैन धर्म का विश्वास नहीं है। जैन धर्म का तो यह ध्रुव सिद्धान्त है कि प्रत्येक भगवान आत्मा ही है, हर साधक सिद्ध हो सकता है, भक्त भगवान बन सकता है। हरेक आत्मा परमात्मा बन सकता है। हर आत्मा में महान् ज्योति जल रही है, प्रकाश कहीं बाहर से नहीं आता, वह तो अन्तर में से ही उद्बुद्ध होता है, प्रकट होता है । आनन्द और शान्ति का महासागर हर साधक के अन्तर मानस में ठाठे मारता रहता है । प्रत्येक साधक का प्रसुप्त चैतन्य जाग उठता है। तभी वह भक्त से भगवान बनता है। कषाय-युक्त से कषाय-मुक्त हो जाता है। रागो से वीतरागी हो सकता है । क्षुद्र से विराट, लघु से महान् और अणु से महत् बनने में ही साधक को साधना का मूल्य है, महत्व है। भक्त और भगवान में क्या अन्तर है ? आत्मा और परमात्मा में क्या भेद है ? इस विषय में एक कवि कहता है
"आत्मा परमात्मा में, ___कर्म ही का भेद है। काट दे गर कर्म,
तो फिर भेद है, न खेद है।" साधना के इस विराट पथ पर सन्त भी चलता है और गृहस्थ भी गति कर सकता है। श्रावक और श्रमण, गृहस्थ और सन्त दोनों के जीवन का लक्ष्य एक ही है, उद्देश्य एक ही है। कुछ कदमों का अन्तर भले ही रहे, आगे-पीछे का अन्तर भले ही रहे । एक तेज गति से बढ़ रहा है, तो दूसरा मन्द गति से । परन्तु दोनों का पथ एक है, संलक्ष्य एक है-उसमें कोई अन्तर नहीं।
अभी एक मुनिजी आपसे प्रेम के सम्बन्ध में कह रहे थे। यह निश्चित है कि जब तक प्रेम नहीं होगा, भक्ति में चमक-दमक नहीं आ सकती। जिस
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