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________________ १३२ अमर भारती मानव जीवन के अन्दर प्रेम नहीं, स्नेह नहीं, घृणा, द्वष और स्वार्थ की आग जलती रहती है, वह मानव जीवन चेतना-हीन है, प्राण-रहित है, मुर्दा है। सद्भाव और वात्सल्य के अभाव में सम्पूर्ण क्रिया-काण्ड-भले ही वह कितना भी ऊँचा क्यों न हो, अंक शून्य बिन्दु के समान है । जीवन-कल्याण में उसका कुछ भी उपयोग नहीं है । जैन संस्कृति के महान दार्शनिक और भक्त आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा है "आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जन बान्यव दुःख पात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः ॥" आचार्य कहता है-रे मन ! क्या तूने भगवान का नाम कभी सुना है ? एक बार नहीं, अनेक बार सुना है, अनेक बार जपा है, अनेक बार दर्शन भी किया है, भक्ति और स्तुति भी की है, फिर भी ऐसी स्थिति क्यों? जीवन की साध पूरी क्यों नहीं हुई ? आचार्य कहता है, सब कुछ किया, परन्तु भावना शून्य होकर किया। भावना न हो, और भक्ति की जाए, तो उस का कोई फल नहीं, कोई लाभ नहीं। भावना रहित जप और तप, भावना-शून्य क्रिया-काण्ड, भावना विकल भक्ति और पूजा व्यर्थ होती है । क्योंकि उसमें प्राण नहीं रहता । आत्मा रहित शरीर के सदृश वह तो शव मात्र ही रहता है । यह तो जीवन का एक परखा हुआ सत्य है कि चेतना रहित शरीर से कभी प्यार नहीं किया जाता। उसे घर में स्थान नहीं रहता, श्मशान में ले जाया जाता है, भस्म करने को, जलाने को । इसी प्रकार भावना रहित भक्ति भी निरर्थक ही है । उससे जीवन की साध पूरी नहीं होती। जल में पड़े पत्थर पर जल का कोई प्रभाव नहीं होता। भले ही वह हजार वर्ष तक भी क्यों न पड़ा रहे ? उसी जल में जब वस्त्र निर्मित पुत्तलिका डाली जाती है, तो वह भीग जाती है। उसके कण-कण में जल रम जाता है । परन्तु सूख जाने पर उसकी क्या दशा रहती है ? गीली रहने पर तो फूली रहती है, सूखने पर सिकुड़ जाती है। उसी जल में मिसरो डालो, तो क्या होता है ? जल के कण-कण में वह अपने आपको आत्मसात् कर देती है । ससार में मनुष्य भी तीन प्रकार के हैं - एक वे जिन पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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