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भक्त से भगवान
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उपदेशों का असर नहीं होता, दूसरे वे जो सुनते समय तो नम्र रहते हैं, परन्तु बाद में स्नेह शून्य हो जाते हैं, और तीसरे वे जो एक बार धर्म को ग्रहण करने पर कभी छोड़ते नहीं। उनके जीवन जल में धर्म की मिसरी घुल-मिलकर एक-मेक हो जाती है।
जब हम आज के भक्तों को देखते हैं, तो मालूम पड़ता है कि वे भक्ति के सागर में पत्थर की तरह पड़े रहते हैं। भक्ति करते-करते बूढ़े हो जाते हैं, पर उनका अभिमान नहीं टूटता, वे द्वेष और घृणा को मन से दूर नहीं कर पाते । जरा-सा छेड़ते ही उनका दिमाग अपने काबू में नहीं रहता । वे अपने आपको संयत नहीं रख सकते । दूसरे भक्त वस्त्र निर्मित पुत्तलिका की तरह होते हैं । जब उनकी भक्ति धारा चलतो है, तो मालूम पड़ता है कि वे सिद्धि के समीप हैं। परन्तु ज्यों ही धर्म स्थान से निकले, सब भक्ति हवा हो जाती है। तीसरे भक्त वह है, जो धर्म को अपने जीवन में उतारते रहते हैं । अपने जीवन को सफल करते रहते हैं।
वर्तमान जितने भी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य क्षेत्र हैं, वे सब सूने पड़े हैं। क्योंकि हृदयों में स्नेह का रस नहीं रहा है, सम रसता नहीं रही है। कार्य करते हैं, परन्तु प्राण रहित होकर करते हैं, निष्क्रिय होकर करते हैं । कायर सिपाही मैदान में तो जाता है, किन्तु मन से नहीं लता है। वही हालत समाज की हो रही है। उसका जीवन लड़खड़-सा रहा है । जीवन क्षेत्र में जब संकट आते हैं, तो भागने के लिए तैयार रहते हैं । परन्तु डटकर संकटों का सामना नहीं कर सकते, मोर्चा नहीं ले सकते । जब तक जीवन में गहरी निष्ठा और ऊंची श्रद्धा नहीं होती है, तब तक भक्ति, स्तुति और जप-तप सब सारहीन ही रहता है, निरर्थक ही रहता है । भक्ति करो, स्तुति करो, साधना करो और आराधना करो-पर स्नेह-सद्भाव के साथ करो । अल्प क्रिया-काण्ड भी भावना का स्पर्श पाकर सार्थक हो जाता है। अतः जो भो कुछ करो, भावना के साथ करो। यही विकास का मार्ग है । यही जीवन-कल्याण की सही दिशा है। भक्ति की सम-रसता ही जीवन के उत्थान में प्रबल साधन है।
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