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काल पूजा, धर्म नहीं जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार षट द्रव्यों में जीव भी है और काल भी । जीव सचेतन है और काल अचेतन है, जड़ है ।
किन्तु, मुझे कहना पड़ता है कि आज समाज में और राष्ट्र में काल की पूजा हो रही है, जबकि होनी चाहिए सचेतन मनुष्य की । काल को लेकर समाज में बड़ा विवाद चल पड़ता है । वातावरण अशान्त ही नहीं, विषाक्त भी हो जाता है । उदय और अस्त के कलह, चतुर्थी और पंचमी के विग्रह, संवत्सरी और वीर जयन्ती के संघर्ष प्रतिवर्ष इस जड़ काल पूजा के कारण हमें परेशानी में डाले रखते हैं । संवत्सरी सावन की करें या भादवे की ? चतुर्थी की करें या पंचमी की ? शताधिक वर्षों में भी हम इसका समाधान नहीं कर सके, निष्कर्ष नहीं निकाल सके । यह काल की पूजा नहीं तो और क्या है काल-पूजा का अर्थ है - जड़ पूजा, जो मानव के सचेतन और सतेज जीवन को भी जड़ बना देती है । संवत्सरी, वीर जयंती आदि पर्वों को लेकर संघ के संघटन का विघटन करना, संघर्ष का तूफान खड़ा करना और समाज के शान्त वातावरण को उत्तेजना पूर्ण वना डालना काल की जड़ पूजा नहीं; तो क्या है ?
बड़ी विचित्र बात है, यह । आपके हाथ को हथेली पर मिसरी की डली रखी है | आप पूछते फिरें कि " कब खाने से इसमें अधिक मिठास निकलेगा ? भोले भाई, यह भी कोई पूछने की बात है ? जब अपनी जीभ पर रखेगा, तभी उसमें से मिठास निकलेगी । क्योंकि मिठास देना मिसरी का स्वभाव है और मिठास लेना जीभ का । लोग हमसे पूछते हैं, तप कब करें ? कब करने से अधिक फल होता है ? पहले भादवे में संवत्सरी करने में धर्म है या दूसरे भादवे में ? मैं कहता हूँ कि धर्म तो विवेक में है । यदि विवेक है, तो दोनों में से कभी भी क्यों न करो। यदि विवेक नहीं है, तो फिर भले सावन में करो, अथवा भादवे में करो । भावना शून्य क्रिया का जीवन में कुछ भी मूल्य नहीं है । क्योंकि धर्म का आधार भावना पर है, न कि जड़ भूतकाल पर ।
विराट काल के विशाल पट पर कहीं पर भी सावन और भादवे की चतुर्थी और पंचमी की छाप अंकित नहीं है । जोवन का संव्यवहार स्थूल तत्व को पकड़ कर चलता है । सामाजिक और सामूहिक जीवन में संघविचारणा को लेकर ही इन बाहरी स्थूल मर्यादाओं का मूल्य आंका जाना
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