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३४ अमर-भारती चाहिए । वास्तविक मूल्य तो मानव के विचार का और संकल्प का है। जिससे संघ में शान्ति और समता का प्रसार हो, वह कार्य धर्ममय माना जाना चाहिए । जैनधर्म में काल की अपेक्षा शान्ति, समता और समभाव का मूल्य अधिक है । क्योंकि जैनधर्म आत्मा का धम है । वह चैतन्य जगत का धर्म है। उसका सम्बन्ध आपके अन्तर मन से है। जीवन में सद्गणों का विकास करना, मानव के मन का काम है या काल का ?
मैं देख-सुन रहा है कि समाज के पत्रों में आज-कल संवत्सरी को लेकर काफी गर्म चर्चा चल पड़ी है । कोई कहता है, संवत्सरी पहले भादवे में करो-यही सिद्धान्त सम्मत है । कोई कहता है-दूसरे भादवे में करोयह शास्त्रानुकूल है । कोई पहले ५० दिनों को पकड़ कर चलते हैं और कोई पिछले ७० दिनों को पकड़ कर बैठा है। इन ५० और ७० से आत्मा का कल्याण होने वाला नहीं है। आत्मा का कल्याण होगा, आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र को विशुद्ध करने से । आत्मा को शुद्ध करने वाला हो सच्चा आराधक है। यदि आत्म-संशुद्धि की भावना से जप-तप किया जाता है, तो वह ५० और ७० दोनों में भी हो सकता है। दोनों पक्षों में मुख्य वस्तु है, शुद्ध भावना ।
मेरी समझ में नहीं आता-लोग किस बात पर संघष करते हैं । भला यह भी क्या बात है कि सत्य बोलना ठीक है, परन्तु वह पहले भादवे में बोला जाए या दूसरे भादवे में । पहले में बोलने से अधिक धर्म है या दूसरे में बोलने से ? कितनी नासमझी का प्रश्न है ? भगवान की वाणी है-"सच्यं लोगम्मि सारभूयं, सच्चं खु भगवं ।" सम्पूर्ण लोक का सारतत्त्व सत्य ही है, सत्य ही तो भगवान् है । जब बोलो, तभी वह मधुर है, सुन्दर है।
तप करना है, पर कब करें ? चतुर्थी को या पंचमी को । सप्तमी को या अष्टमी को ! त्रयोदशी को या चतुर्दशी को ? मैं कहता हूँ. इस प्रकार सोचना ही गलत है। क्योंकि तप तो आत्मा का तेज है। जब करोगे, तभी चमकोगे, तभी दमकोगे। दीपक प्रज्वलित होते ही प्रकाश बिखेरता है।
हमारी दृष्टि तो यह होनी चाहिए कि समाज में और संघ में जिस किसी भी प्रकार शान्ति, समता, स्नेह और अनुशासन बड़े, उस अवस्था के
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