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________________ ११२ अमर-भारती श्रमण परम्परा में मानव जीवन के दो विभाग हैं-श्रावक और श्रमण । गृहस्थ और सन्त, भोगी और त्यागी। भोग से त्याग की ओर बढ़ना-दोनों के जीवन का ध्येय-बिन्दु है । जो एक साथ सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता, वह श्रावक होता है, जो एक साथ समस्त बन्धनों को काट कर चल पड़ा, वह श्रमण होता है। परन्तु इन दो भूमिकाओं से पूर्व भी जीवन की दो भूमिकाएं और हैं-मार्गानुसारी और सम्यग्दृष्टि । जो अभी अन्धकार से मुड़कर प्रकाशोन्मुख बना है. परन्तु अभी प्रकाश को पा नहीं सका, वह मार्गानुसारी-सन्मार्ग का अनुसरण करने वाला है । जिसने प्रकाश पा लिया, सत्य का संदर्शन कर लिया, वह सम्यग्दृष्टि है। सत्य के महापथ पर चल पड़ना । यह श्रावकत्व और श्रमणत्व है। श्रमण संस्कृति की मान्यता के अनुसार जीवन की ये चार रेखाएँ हैं । इनमें से पहली रेखा तक, पहली भूमिका तक जीवन की कला प्राप्त नहीं होती। सम्यग्दृष्टि व सत्य-दृष्टि ही जीवन शोधन की सच्ची कला है । यह कला जिसके पास हो, जीवन यात्रा में उसे किसी प्रकार का भय नहीं हो सकता। वैदिक परम्परा में जीवन को चार विभागों में विभाजित किया हैब्रह्मचर्य-ज्ञान साधनाकाल, गृहस्थ-कर्तव्य काल, वानप्रस्थ-संन्यास की तैयारी और संन्यास-साधना काल । पहले विभाग में जीवन की सुदृढ़ता, दूसरे में धन और जन का उपार्जन और उपभोग, तीसरे में त्याग की तैयारी और चौथे विभाग में त्याग की साधना की जाती है। भारतीय विचारधारा में मानव जीवन को "सत्यं, शिवं, सुन्दरं" कहा गया है। दर्शन सत्य है, धर्म शिव है, मंगल है और कला सुन्दर है। दर्शन विचार है और कला आचार है, सम्यक्त्व उन दोनों में शिवत्व का अधिष्ठान करता है । फलितार्थ निकला-सम्यनिष्ठा, सम्यगविचार और सम्यग् आचार- इन तीनों का समग्रत्व ही वस्तुतः जीवन कला है। जिसके जीवन में निष्ठा हो, विवेक हो और कृति हो, तो समझना चाहिए, कि यह कलावान है। आत्मा में सत्, चित् और आनन्द-ये तीन गुण हैं। इन तीनों की समष्टि को 'आत्मा' पद से कहा गया है । सत् का अर्थ सत्य, शिव का अर्थ विवेक और विचार और सुन्दर का अर्थ आनन्द । अर्थात् सत्य, शिव और सुन्दर को समष्टि को ही जीवन-कला कहा जाता है । जहाँ तक मैं समझता हूँ, जीवन का चरम ध्येय आनन्द है। यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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