________________
जीवन : एक कला
११३
मानव जीवन में से आनन्द-तत्व को निकाल दिया जाए, तो फिर मैं पूछता हूँ कि जीवन का अर्थ ही क्या शेष बचा रहेगा ? और यदि जीवन में आनन्द नामक कोई तत्व है, तो फिर कला की नितान्त आवश्यकता है । क्योंकि कला का उद्देश्य जीवन को आनन्दमय बनाना है । कुछ विचारक कहते हैं- " कला का अर्थ है, कला । यानी कला, केवल कला के लिए है । जीवन से उसकी कोई संगति नहीं ।" मैं समझता हूँ, यह एक बड़ी भ्रान्ति है । यह नारा भारत का नहीं, विदेश का है-जहाँ भोग ही जीवन की अन्तिम परिणति है । परन्तु भारत में जीवन की चरम परिणति है-योग | अतः यहाँ कला, केवल कला के लिए ही नहीं, मनोरंजन के लिए ही नहीं, अपितु जीवन वे लिए है, भोग से योग में जाने के लिए है । भारतीय विश्वास के अनुरूप कला की निष्पत्ति जीवन के लिए हुई है । अतः कहना होगा - "कला जीवन के लिए है ।" देश, काल और परिस्थितिवश कला में विभेद हो सकते हैं, परन्तु कला कभी व्यर्थ नहीं हो सकती है ।
1
सौन्दर्य की ओर ढलना, मानव मन का सहज स्वभाव रहा है । मानव मानस में स्थित सौन्दर्य, केवल मानव के अपने जीवन तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु अपने आराध्य भगवान को भी वह सुन्दर वेष में सुन्दर, भूषा में और सुन्दर रूप में देखने की कल्पना करता है। वीतराग को भी भक्त कवि अनुपम, अद्भुत और चरम सुन्दर देखना चाहता है
" यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मातिस्त्रिभुवनैकललामभूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति || "
मैं समझता हूँ, इससे अधिक सौन्दर्य की उपासना अन्यत्र दुर्लभ है । भक्त अपने भगवान को विश्व में सर्वाधिक चिर सुन्दर देखना चाहता है । तभी तो वह कहता है कि जिस शांतराग परमाणु पुंज से आपके शरीर की रचना हुई है, वे परमाणु विश्व में उतने ही थे। क्योंकि इस विराट विश्व में आपसे अधिक रूप किसी में नहीं हैं, आपसे अधिक सौन्दर्य किसी में नहीं है । सौन्दर्य के उपकरण ही नहीं रहे, तो सौन्दर्य कहाँ रहेगा ?
भले ही हम इस भक्त कवि की सौन्दर्य भावना को भक्ति का अतिरेक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org