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संयम की साधना ६१ कुमार की सिद्धि से और धन्नाजी की वैभवशीलता से यहाँ किसी प्रकार का विरोध नहीं है । जैन धर्म तो केवल इतना ही अनुरोध करता है कि बटोरना सीखा है, तो छोड़ने की कला भी सीख लो। यदि आपके जीवन में त्याग भावना की इतनी तीव्र तैयारी हो, तो भले ही शालिभंद्र बनो, धन्ना बनो और जम्बू बनो । अपनी जिन्दगी की कार को मोड़ देने की कला यदि सीख ली है, तो फिर धन-वैभव के अम्बार में भी क्या खतरा है ?
___मैं आपसे कह रहा था कि त्याग की भावना, संयम की साधना और तप की आराधना-जीवन की बहुत बड़ी आवश्यकता है। त्याग की बलवती भावना के बिना मनुष्य का दैनिक कृत्य भी नहीं चल सकता। जननी अपने नवजात शिशु के लिए कितना त्याग करती है ? कौन है जो जननी के ऋण से उऋण हो सका हो ? बन्धु अपने बन्धु के लिए और मित्र अपने मित्र के लिए जो त्याग करता है, उसका लेखा-जोखा नहीं आंका जा सकता। राम ने भरत के लिए कितना त्याग किया ? अपने स्वार्थ को छोड़े बिना त्याग नहीं किया जा सकता? और स्वार्थ त्याग, यही संयम है, यही तप है। व्यक्ति परिवार के लिए त्याग करे, परिवार समाज के लिए त्याग करे, और समाज राष्ट्र के लिए त्याग करे, तभी जीवन-सागर में सुख, समृद्धि और आनन्द की लहरें तरंगित हो सकती हैं।
जैन धर्म की मूल भावना यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन धन का स्वामी होकर रहता है, वही त्यागी कहा जा सकता है । इच्छा और वासना का दास क्या त्याग करेगा? अपनी जिन्दगी में गुलाम बनकर चलने वाले के भाग्य में तो कदम-कदम पर ठोकरें खाना ही लिखा है। भगवान महावीर कहते हैं-"साधक तुम अपने जीवन के सम्राट बनो। अपने मन के राजा बनो।" जिसके जीवन में त्याग की चमक-दमक होती है, वही यथार्थ में मनो विजेता है। जो मनो विजेता बन गया, वह अवश्य ही जगतो विजेता है । अपने को जीतकर सबको जीता जा सकता है और अपने को हार कर सबको हारा जाता है । सन्त कबीर की वाणी में जीवन का यह परम सत्य उतरा है-"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।" जैन धर्म की यही प्रेरणा है कि अपने जीवन के अधिष्ठाता बनो, दीन, हीन, दरिद्र नहीं।
__मैं आपसे कह रहा था कि जन-कल्याण के लिए जैन धर्म के पास यदि कोई भावना है, तो वह यही है-"मनुष्य तू अपने जीवन सागर में
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