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________________ ६२ अमर भारती डुबकी लगा और खूब गहरी लगा, पर सूखा का सूखा रह, गीला मत बन ।" जीवन जीने की यह कला यदि तूने प्राप्त कर ली, तो फिर निश्चय ही तू शालिभद्र है, धन्ना है और है अनासक्त योगी जम्बूकुमार । भगवान महावीर के पास यही तो कला थी कि वे स्वर्ण सिंहासन पर बैठकर भी उससे चिपके नहीं | जल में रह कर भी जल से ऊपर कमल बने रहे । त्याग की ज्योति जब साधक के अन्तर मन में प्रस्फुटित होती है, तब उसे स्वर्ग और स्वर्ग के सुखों की अभिलाषा नहीं रहती । उसका जीवन ही हजारों-हजार पापतापित मानवों के लिए स्वर्ग बन जाता है। त्यागी स्वर्ग की कामना नहीं करता, उसका जीवन ही स्वर्गमय हो जाता है । पुराण साहित्य का एक सुन्दर रूपक है- "विष्णु ने बलि से पूछाबोलो, तुम्हें दो बातों में से कौन सी पसन्द है ? सज्जन के साथ में नरक जाना अथवा दुर्जन के साथ स्वर्ग जाना ? बलि ने तपाक से के साथ नरक में जाना मुझे पसन्द है । क्योंकि सज्जन में स्वर्ग बनाने की अपूर्व क्षमता रहती है ।" कहा सज्जन नरक को भी मैं विचार करता हूँ कि ये स्वर्ग और ये नरक क्या हैं ? ये स्थान विशेष भी हो, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं । परन्तु मैं कहता हूँ कि मनुष्य का असंस्कृत मन नरक है और संस्कृत मन स्वर्ग । बात को मैं व्यंजनात्मक भाषा में कह गया हूँ । कारण यह है कि किसी भी बात को गहराई से सोचने की मेरी आदत रही है । अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मुझे भी अपने श्रोताओं के विचार की सतह पर आना होगा । तभी आप मेरी बात को समझ सकेंगे । आगम वाङ्मय में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि - "देव मर कर देव नहीं बन सकता और नारक मरकर नारक नहीं बन सकता ।" परन्तु भगवती सूत्र के एक पाठ में यह भी आया है - "देव, देव ही बनता है और नारक, नारक ही बनता है ।" मैं समझता हूँ कि आप में से कतिपय सज्जन यह सोचते होंगे कि वीतराग एवं सर्वज्ञ की वाणी में इतना विरोध क्यों ? पर, मैं कहता हूँ कि यह विरोध तो अपनी बुद्धि का है, सर्वज्ञ की वाणी का नहीं । वह तो अपने आप में स्पष्ट तथा बिल्कुल सरल है । भगवान की वाणी का आशय यह है कि - " विकृत मन वाला मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में भी नारक है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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