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________________ संयम की साधना ६३ मरकर भी वह नारक ही बनता है और संस्कृत मन वाला मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में भी देव है और मरकर भी देव ही बनता है । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि देवत्व और नारकत्व स्थान विशेष होते हुए भी मानव मन की स्थिति विशेष भी है । जैन धर्म का दिव्य सन्देश है कि तुम अपने जीवन में देव बनो, नारक नहीं ।" देवत्व प्राप्ति करने का मार्ग है, त्याग, संयम और तप । मैं आपसे एक बात और कह देता हूँ कि जैन संस्कृति का परम पवित्र पर्व पर्युषण आपके द्वार पर आ गया है। आज तो वह द्वार पर ही है, पर कल से वह आपके सदन में भी प्रविष्ट हो जाएगा, सदन का अर्थ आप अपने लाल भवन से ही न समझ लें, बल्कि वह आपके मनो मन्दिर में आ जाना चाहिए । आज उसकी तैयारी का दिन है और कल आप मुक्त हृदय से उसका नव्य एवं भव्य स्वागत करें। भगवान महावीर ने कहा है कि काल की प्रतिलेखना करना साधक का परम धर्म है । काल प्रतिलेखना का अर्थ है, समय का ध्यान रखना - " काले कालं समायरे ।" सिद्धान्त का यही रहस्य है - " साधक ! तू अपना हर काम समय पर कर, प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण कर स्वाध्याय के समय स्वाध्याय कर साधक ! तू समय का उपयोग कर । परन्तु काल की पूजा मत कर । काल पूजा का अर्थ है, काल में होने वाले कर्तव्य को भूल कर केवल जड़ काल के ही चिपके रहना । जिस समय जो कर्तव्य है, उस समय उसे करते रहो, उसका पूरा-पूरा ध्यान रखो, सावधानी रखो।" 1 एक सज्जन ने मुझे पूछा - "महाराज आप यहाँ जयपुर में कब पधारे और यहाँ पर कब तक रहेंगे ।" उसे यह पता नहीं कि वर्षा काल लगा है। और सन्त चार मास तक एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं । काल की प्रतिलेखना करने वाला साधक अपने जीवन में इतना बेखबर नहीं रह सकता । अतः समय का सदुपयोग करना साधक का कर्तव्य है । मैं अभी आपसे पर्युषण पर्व की बात कह रहा था कि उसके स्वागत के लिए तैयार रहो । आप कहेंगे कि आता है, तो आने दो। पहले से ही तैयारी करने का क्या अर्थ ? परन्तु जैन धर्म कहता है कि साधना के क्षेत्र में साधक को सदा तैयार रहना चाहिए । आपने सुना होगा कि चक्रवर्ती की रसोई बनाने वाले रसोइये ३६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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