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________________ ७८ अमर-भारतो "चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ।" तू चाण्डाल हो या द्विज हो । कुछ भी क्यों न हो, परन्तु यह सत्य है कि तू मेरा सच्चा गुरु है, मार्ग दर्शक है । तेरी देह में मुझे आज विश्वात्मा का पुण्य दर्शन हुआ है । तेरा यह कथन सत्य है कि यह शरीर सबका अन्नमय है, परन्तु इसमें रहने वाला आत्मा, चैतन्य देव भी सबका समान ही है। ____ मैं आप से कह रहा था कि श्रमण परम्परा का पवित्र द्वार मानव मात्र के लिए सदा खुला है। श्रमण संस्कृति देह या आत्मा की दृष्टि से भी किसी को हीन या अपवित्र नहीं समझती। वह जन्म को नहीं, कर्म को महत्व देती है । जैन धर्म के भव्य सिंहद्वार में किसी भी देश का, किसी भी जाति का और किसी भी कुल का मनुष्य बेखटके प्रवेश पा सकता है। क्योंकि जैन धर्म के द्वार पर किसी का भी जाति और कुल नहीं पूछा जाता । वहाँ पूछा जाता है, उसका सत्कर्म, सदाचार और जीवन की पवित्रता व निर्मलता। वहाँ धन, सत्ता और वैभव की पूछ नहीं है। वहां तो हर किसी इन्सान से एक ही सवाल पूछा जाता है कि अहिंसा, अनेकांत, और अपरिग्रह में तुम्हारा विश्वास है या नहीं ? तुम्हारे धर्म स्थानक में कोई भी हरिजन भाई बेखटके और वे रोक-टोक आ सकता है, यहां आकर धर्म आराधना व साधना कर सकता है। हाँ, मुझे एक बात अवश्य कहनी है । भले ही वह आपको कटु लगे क्योंकि सत्य सदा कटु ही रहा है। आज आप यहाँ हरिजन दिवस मना रहे हैं । आज हरिजन भाई बड़ी संख्या में उपस्थित भी हैं। उन्हें मै यह चेतावनी देता है कि उनका उद्धार व उनकी समस्या का हल बाहरी प्रचार से नहीं, अपने अन्दर के पवित्र आचार और विचार से ही होगा। सुरा और मांस का वे त्याग करें। सदाचार, सद्भाव और स्नेह से रहना सीखें। शिक्षा और दीक्षा के पवित्र मन्त्रों से अपने मन को शुद्ध बनाते रहें। आप लोग सवर्ण लोगों से अस्पृश्यता को दूर करने की मांग करते हो । परन्तु मैंने सुना है कि आप लोगों में भी परस्पर कथित छआ-छत की भावना मौजूद है। उन छोटे-मोटे घेरों को तोड़कर विराट बनो। इसी में आप की समस्या का हल है, इसी में आप सब का कल्याण है। पवित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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