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अमर-भारती
भरा है ? उसमें सच्चा कोई नहीं ? मैं समझता हूँ, यह एक मृत वैराग्य है, अज्ञानपूर्ण वैराग्य है । इससे जीवन का विकास नहीं हो सकता । संसार में रहकर भी संसार की आसक्ति में न फंसना ही सच्चा वैराग्य । संसार को झूठा कहना, मात-पिता को झूठे कहना, कुटुम्ब - परिवार को राक्षस कहना, यह कोई वैराग्य की परिभाषा नहीं है। समूचा संसार कभी झूठा नहीं हो सकता। संसार बुरा नहीं, व्यक्ति की दृष्टि बुरी है । संसार तो एक कर्म भूमि है, एक कर्म क्षेत्र है । जिसका जी चाहे, अपने आपको बना सकता है, देव भी और राक्षस भी । दृष्टि का फेर है । संसार नरक भी हो सकता हैयदि दृष्टि पाप पूर्ण है, तो । अन्यथा मैं समझता हूँ कि यही ससार स्वर्ग भी हो सकता है । स्वग का अर्थ यहाँ, देवों का स्वर्ग न समझें । मैं यहाँ उस स्वर्ग की बात कह रहा हूँ, जिस स्वर्ग की बात व्यास ने अपने महाभारत में कही है | स्वर्ग क्या है ? व्यास ने कहा"स्वर्गः सत्वगुणोदयः ।"
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सात्विक गुणों का विकास करना, यही तो स्वर्ग है । दृष्टि को बदलते ही यह नरकमय संसार भी स्वर्गमय संसार बन जाएगा ।
मैं कहता हूँ कि अपने आपको तोलकर और सही दिशा में अपनी दृष्टि स्थिर करके जब कोई इस संसार संघर्ष में उतरेगा, तो उसे संसार बुरा नहीं लगेगा | वह उससे भागना नहीं चाहेगा, वह संसार को और मात - पिता को झूठा नहीं कहेगा, बल्कि संसार में फैली हुई विकृति को, वह अपनी कमजोरी को समझेगा और उससे लड़ना चाहेगा । जीवन संघर्ष के लिए है, यह सत्य है । पर वह संघर्ष होना चाहिए, समाज में और राष्ट्र में फैले हुए उन भ्रान्त विचारों और गलत परम्पराओं के विरोध में, जो मानव जीवन को रूढिग्रस्त व प्रगति-विरोधी बना देते हैं और उन स्वार्थमय तुच्छ वादों के विरुद्ध जो अखण्ड मानव जाति को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट कर हृदयहीन बना देते हैं । जाति, कुल, पन्थ - आज इन सब बेड़ियों को काट डालने की आवश्यकता है । मानवता की मशाल को ज्योतित रखने वाला, अपने विमल प्रेम की विशाल भुजाओं में सारे संसार को लिपटा लेने के लिए आगे बढ़ेगा । जाज का युग सहयोग और सह अस्तित्व का युग है । यह वृत्ति सामाजिक जीवन का प्राण तत्व है । स्नेह, सद्भाव और समता से मानवता का विकास होता है, अभ्युदय होता है ।
भगवान महावीर ने कहा है-मुक्ति चाहे जिसको प्राप्त हो, परन्तु
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