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संसार बुरा नहीं, व्यक्ति की दृष्टि बुरी है ६६ संसार क्या है ? एक कर्मभूमि । एक कर्म क्षेत्र । मनुष्य है, उस कर्म भूमि का, उस कर्म क्षेत्र का कम-योगी। मनुष्य संघर्ष तो करता ही है, परन्तु देखना यह है कि वह संघर्ष किसलिए करता है ? स्वार्थ के लिए या त्याग के लिए ? भोग के लिए या योग के लिए? नीति के लिए, या अनीति के लिए ? धर्म के लिए, या अधर्म के लिए ? संघर्ष तो होना चाहिए, पर न्याय नीति के लिए होना चाहिए । इसी में मनुष्य जीवन की विशेषता है। अपने मन्द मुस्कान की आनन्द रश्मियों से आप कितनों के मुकुलित मानसों को विकसित कर सकते हो ? इसी में मानव जीवन की सफलता के दर्शन होते हैं । कवि की वाणी में गाना होगा
"मानव होकर मानवता से,
तुम ने कितना प्यार किया है ? इस जीवन में तुम ने कितना,
___ औरों का उपकार किया है ॥" अल्प शब्दों में कहा जाए, तो निज के मानस को अधिक से अधिक उदात्त बनाना ही सच्ची मानवता है। जिस सरस मानस में समूचा संसार समा सके, विश्व-बांधवता का सुन्दर अंकुर फूट सके, वह मनुष्य एक सच्चा मनुष्य है। मानवता का आधार क्षेत्र वही है। वही है, देवताओं का प्यारा इन्सान । इस प्रकार का मानवत्व बिना त्याग-वैराग्य के प्राप्त नहीं हो सकता । भोगासक्ति में मनुष्य अपना मनुष्यत्व भूल जाता है।
____ जीवन में त्याग-वैराग्य की बड़ी आवश्यकता है क्योंकि उसके बिना जीवन में चमक-दमक नहीं आ पाती, पर वह संस्कृत रूप में होना चाहिए, विकृत रूप में नहीं। वह सजग और सतेज चाहिए, निर्जीव और निष्प्राण नहीं । मुझे याद है, एक बार एक अनमोल बालक के मुख से सुना
"मात-पिता सारे झूठे हैं,
झूठा है, संसार।" यह वैराग्य, जो अज्ञान बालकों के मन में बैठ जाता है, कोई सच्चा वैराग्य नहीं है । इससे जोवन का निर्माण नहीं हो सकता। मात-पिता झूठे, सारा संसार झूठा, संसार में कोई मेरा नहीं। इसका मतलब क्या ? क्या दुनिया में जन्म देने वाले और लालन-पालन करने वाले मात-पिता भी झठे, धोखा देने वाले और फरेब बाज हैं ? क्या समूचा संसार मक्कारों से ही
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