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अमर- भारती
कितना उत्तरदायित्व आ गया है ? और उसकी पूर्ति के लिए हमारा क्या कर्तव्य है ?
उपर्युक्त उलझनों का सिरा पाने के लिए भारतीय संस्कृति का एक दिव्य सन्देश हमारी ओर अंगुली -निर्देश कर रहा है । वह यह - ' अपने आप मैं सीमित न रहो' । आज हमारे जीवन की गतिविधि यह हो गई है, कि हम प्रत्येक दिशा में अपने को अपने आप में ही मीमित कर लेते हैं । आज का मनुष्य अपने विषय में ही सोचता है । खाना-पीना, सुख-सुविधा आदि समस्त कार्य केवल अपने लिए ही करता है । किन्तु भारत की चेतना भारत का स्वभाव इससे सर्वथा विपरीत रहा है। उसने कभी भी अपने लिए नहीं सोचा है । उसका सुख अपना सुख नहीं रहा है और न ही उसका दुख भी अपना दुःख रहा है । भारत सदैव प्राणीमात्र के जीवन को अपने साथ लेकर गति करता रहा है । इसने न कभी अपनी पीड़ा से आर्त होकर आंसू छलकाए हैं और न ही सुख में भान भूलकर कह कहा लगाया है । हां, दूसरे को कांटा चुभने पर इसने अपने अश्रु-कणों से उसके दुःख को धोकर हलका करने का सत्य प्रयत्न अवश्य किया है ।
जैन धर्म से हमारा निकटतम सम्बन्ध है । जीवन के प्रभात से हम उसकी गोद में खेले और पले हैं । जब हम जैन-धर्म का तलस्पर्शी अध्ययन करते हैं, तो इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि वह अपने जीवन में प्रत्येक प्राणी का- - फिर चाहे क्षुद्र चींटी से लेकर विशालकाय गजेन्द्र तक क्यों न हो, सुख दुःख लिए हुए हैं। प्राणीमात्र का दुःख के गहन गर्त से निकलना उसका परम एवं चरम कर्तव्य रहा है । दूसरे को दुःखार्त देखते ही उसका अन्तःकरण सिहर उठता है । वह अपना आनन्द, अपना सुख अपनी चेतना, अपना अनुभव, किंबहुना - अपनी सम्पूर्ण शक्ति विश्वजनीनता के लिए अर्पण करने को सदैव सन्नद्ध रहा है । इसकी चेतना की धारा अजस्र, अखण्ड रूप से प्रवाहमान रही है । गजेन्द्र बाबू ने कहा था
" आज इतिहास गुण गा रहा है हमारा"
किन्तु विचार करना है, कि क्या लक्ष्मी वैभव के कारण इतिहास हमारा गुणगान कर रहा है ? या तलवार की पैनी धार से शत्रुओं के सिर धड़ से अलग करने के कारण ? अथवा ऊँचे-ऊंचे प्लेटफार्मों पर ओजस्वी भाषण (speech) देने के कारण ? नहीं, कदापि नहीं । हमारा
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