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मंगलमय सन्त-सम्मेलन
किसी भी समाज, राष्ट्र और धर्म को जीवित रहना हो, तो उस का एक ही मार्ग है-प्रेम का, संगठन का । जीवित रहने का अर्थ यह नहीं है कि कीड़े-मकोड़े की भांति गला-सड़ा जीवन व्यतीत किया जाए । जीवित रहने का अर्थ है - गौरव के साथ मान मर्यादा के साथ, इज्जत और प्रतिष्ठा के साथ शानदार जिन्दगी गुजारना । पर यह तभी सम्भव है, जबकि समाज में एकता की भावना हो, सहानुभूति और परस्पर प्रेमभाव हों।
पण्डित सिरेमलजी ने अभी कहा है, कि हमारा जीवन सुखमय हो । बात बड़ी सुन्दर है, कि हम मंगलमय और प्रभुमय बनने की कामना करते हैं । पर, इसके लिए मूल में सुधार करने की महती आवश्यकता है । यदि अन्दर में बदबू भर रही हो, काम क्रोध की ज्वाला दहक रही हो, द्वष की चिनगारी सुलग रही हो, मान और माया का तूफान चल रहा हो, तो कुछ होने-जाने वाला नहीं है। ऊपर से प्रेम के, संगठन के और एकता के जोशीले नारे लगाने से भी कोई तथ्य नहीं निकल सकता । समाज का परिवर्तन तो हृदय के परिवर्तन से ही हो सकता है।
मैं समाज के जीवन को देखता है, कि वह अलग-अलग खूटों से बंधा है । आपको यह समझाना चाहिए कि खूटों से मनुष्यों को नहीं, पशुओं को
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