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________________ १८४ अमर भारती इस सिद्धान्त के बिना हम न अपना ही विकास कर सकते हैं और न अपने समाज कथा धर्म का ही । युग चेतना का तिरस्कार करके कोई भी समाज फल-फूल नहीं सकता । युग की मांग को अब हम अधिक देर तक नहीं ठुकरा सकते हैं । और यदि हम ने यह गलती की, तो इसका बुरा ही परिणाम होगा ! साधु-सम्मेलन का स्थान और तिथि निश्चित हो चुके हैं। अब इस शुभ अवसर को किसी भी भाँति विफल नहीं होने देना चाहिए । दुर्भाग्यवशात् यदि हमारा साधु-समाज जाने या अनजाने, अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में, सम्मेलन में सम्मिलित न हो सका, तो इस प्रमाद से हमें ही नहीं, वरन हमारे समाज और धर्म को भी निश्चय ही क्षति होगी । अतएव सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक प्रतिनिधि को दृढ़ संकल्प करके निश्चित स्थान की तरफ विहार करना ही श्रेयस्कर है । क्योंकि अब हमारे पास बहुत ही कम समय रह गया है । हमारा दो वर्ष का परिश्रम सफल होना ही चाहिए । यदि हम प्रामाणिकता के साथ अपने गन्तव्य स्थान की तरफ चल पड़े, तो यह निश्चित है कि हम अवश्य ही सम्मेलन में पहुँच सकेंगे । आज की बात केवल इतनी ही है । कुछ और भी है, अवसर मिला तो वह भी किसी उचित समय पर लिखने या कहने की अभिलाषा रखता हूँ । अजमेर, लोढ़ा धर्मशाला Jain Education International For Private & Personal Use Only २८-४-५२ www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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