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जैन संस्कृति का मूल स्वर : विचार और आचार
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उसकी दोनों पाँखें सशक्त हैं, स्वस्थ हैं, मजबूत हैं । पक्ष-विहीन पक्षी कैसे उड़ान भर सकता है ? बिना पांख का पखेरू नीचे जमीन पर ही गिरता है । उसके भाग्य में अनन्त गगन का आनन्द कहाँ ? यदि वह दुर्भाग्यवश उड़ने का संशल्प भी करे, तो मिट्टी के ढेले की तरह नीचे की ओर ही पड़ेगा, ऊँचे नहीं उड़ेगा । यदि एक पांख का पक्षी हो, तो उसकी भी यही गति होती हैं, यही दशा होती है । उसके भाग्य में पड़ना लिखा है, उड़ना नहीं ।
मैं आपसे कह रहा था - साधक कोई भी क्यों न हो ? श्रमण हो, श्रमणी हो, श्रावक हो, श्राविका हो और भले ही वह सम्यग् - दृष्टि ही क्यों न हो । साधना के अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरने के लिए विचार और और आचार की मजबूत पांखें होनी चाहिए। तभी वह बेखतरे ऊँचे उड़ सकता है ?
इस विषय को लेकर भारत के चिन्तकों में पर्याप्त मतभेद हैं । कुछ कहते हैं - जीवनोत्थान के लिए केवल विचार ही चाहिए, आचार की आवश्यकता हो क्या ? ब्रह्म को जान लेना, बस यही तो मुक्ति है । आत्म तत्व को जान लेने मात्र से माया के बन्धन टूट जाते हैं । अतः विचारज्ञान मुक्ति का अनिवार्य साधन है । कुछ कहते हैं - जीवन को परम पवित्र करने लिए केवल आचार चाहिए, केवल क्रिया चाहिए। पूजा करो, भक्ति करो, जप करो, तप करो - शरीर को तपा डालो, बस यही तो है, मुक्ति का मार्ग । जीवन में करना ही सब कुछ है । ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है | भगवान ने अथवा आचार्यों ने जो बताया है, वह ठीक है । वे बता गये और हमें करना है । लक्ष्य पर पहुँचने के लिए यात्रा में पैरों की जरूरत रहती है । आँख भले ही न हो, चलने में पैरों की ही जरूरत रहती है ।
परन्तु मैं कहता हूँ कि यह एकांगी चिन्तन और विचार जैन संस्कृति की साधना में उपयुक्त नहीं है । वहाँ तो आँख और पैर दोनों की आवश्यकता ही नहीं, अपितु अनिवार्यता भी है । चलने के लिए पैरों की जरूरत है, यह ठीक है, पर देखने के लिए आँखों की भी आवश्यकता है ही । "देखो और चलो” यह सिद्धांत तो ठीक है परन्तु चलते ही चलो, देखो मत, यह मत ठीक नहीं है । अन्धों की तरह चलने में कोई लाभ नहीं है | भगवान महावीर कहते हैं - "जीवनोत्थान के लिए जीवन विकास के लिए, जीवन की पवित्रता के लिए और जीवन की सिद्धि के लिए विचार
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