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________________ जीवन के राजा बनो : भिखारी नहीं १२१ स्वामी है, अपनी आत्मा का राजा है। जो अपने जीवन में इन्द्रियों का दास बनकर रहता है, मन का गुलाम बनकर जीता है और तन की आवश्यकताओं में ही उलझा रहता है, वह क्या तो तप करेगा और क्या जप करेगा ? क्या आत्या को पहचानेगा? इन्सान जब तक अपनी जिन्दगो का बादशाह नहीं बनता, भिखारी बना फिरता है, तब तक उत्थान की आशा रखना निरर्थक है । अपने जीवन के रंक, क्या खाक साधना करेंगे? एक भिखारी भाग्य-योग्य से राजा बन गया। सोने के सिंहासन पर बैठ गया। तन को सुन्दर वस्त्र और कोमती आभूषणों से अलंकृत कर लिया। सोने के थाल में भोजन करता, सोने के पात्र में जल पीता। हजारों-हजार सेवक सेवा में हाजिर रहते । चलता, तो छत्र और चमर होते । रहने को भव्य भवन । जीवन में अब क्या कमो थी ? चारों ओर से जय-जयकार थे। किन्तु यह क्या ? मन्त्री आता, तो डरता है। सेनापति आता है, तो कांपता है। नगर के सेठ-साहकार आते हैं तो सक-पका जाता है, जिन सेठ-साहूकारों के द्वार पर कभी वह भिक्षा पात्र हाथ में लेकर द्वार-द्वार भटकता फिरता था-आज वे उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े थे, पर फिर भी वह भय-भीत था। कारण क्या था ? वह तन का राजा जरूर था, परन्तु मन का भिखारी ही था। उसका मन अभी राजा नहीं बन पाया था। सजा के उच्च सिंहासन पर आरूढ़ होकर भी वह अपने आप को अभी तक भिखारी ही समझता था। तन से राजा होकर भी वह मन से भिखारी ही था। मैं कह रहा था कि समाज में इस प्रकार के भिखारी राजाओं की कमी नहीं है । हजारों मनुष्य अपने तन के गुलाम हैं, मन के दास है, सम्पत्ति, सत्ता और ख्याति के दास हैं । घर में अपार धनराशि है। परन्तु केवल तिजोरियों में बन्द करके धूप-दीप देने को । जीवन में वे धन के दास बनकर रहे, स्वामी नहीं बन सके । धन मिला तो क्या हुआ ? न स्वयं ही भोगा और न समाज या राष्ट्र के कल्याण के लिए ही दे सके । शक्ति मिली, सत्ता मिली? पर हआ क्या ? अपने स्वार्थ का पोषण किया। अपने को सुखी बनाने के प्रयत्न में रहे। अपनी समृद्धि के लिए दूसरों के जीवन का अनादर किया । बनना चाहिए था, दीन-अनाथ रक्षक, बन बैठे भक्षक । तलवार थी, रक्षण के लिए, पर करने लगे दीन-जनों का संहार । सत्ता मिली, पर किया क्या ? उत्पीडन ही करते रहे न ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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