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अमर-भारती
नहीं है, तो कहना होगा कि उसमें मनुष्यता शेष है । पदानुरागी और मदानुरागी मनुष्य में मनुष्यता का संदर्शन सुलभ नहीं कहा जा सकता ।
रोम के पोप के जीवन का एक मधुर प्रसंग है । एक बार पोप के दर्शन को उसके गांव का एक बड़ा-बूढ़ा मनुष्य आया । वृद्ध ने अपने गाँव में जब यह सुना कि मेरे ही गाँव का एक तरुण युवक पोप बना है, तब वह अपने हृदय के आनन्द को रोक नहीं सका । पोप से मिलने को रोम जा पहुँचा । वृद्ध ने पोप के निवास स्थान पर जाकर देखा - हजारों भक्त और सैकड़ों पादरियों के मध्य में पोप विराजित है । पोप ने भी ज्यों ही अपने गाँव के बूढ़े को देखा, त्योंही अपने सिंहासन से खड़ा हो गया और वृद्ध को अभिवादन भी किया । बड़े प्रेम के साथ बातचीत करने लगा । परन्तु पादरियों से यह देखा नहीं गया। उन्होंने कहा - आप यह क्या कर रहे हैं ? आप खड़े क्यों हो रहे हैं ? आप अभिवादन और सत्कार किसका कर रहे हैं ? पोप ने मधुर-भाव से कहा - " मेरे गाँव के बड़े-बूढ़े व्यक्ति आये सत्कार करना मेरा कर्तव्य है ।" पादरियों ने कहा- नहीं, यह ठीक नहीं । आप पोप हैं । विश्व में आपसे बड़ा कौन है ? किसी का अभिवादन और सत्कार करना, यह पोप की मर्यादा की परिधि से बाहर है । पोप ने हँस कर कहा - " आप ठीक कहते होंगे । परन्तु क्या करूँ ? मेरी इन्सानियत अभी जिन्दा है, वह मरी नहीं है ।"
बात सुनकर हँसी आना सहज है । किन्तु पोप की बात में जीवन का कितना महान् सत्य भरा है । अपना विकास करो, अभ्युदय करो - पर नम्रता और शिष्टता को भूलकर नहीं ।
मैं आपसे जीवन के ध्येय की बात कह रहा था । जीवन का ध्येय क्या है ? क्या मानव देह प्राप्त कर लेना ही जीवन का ध्येय है ? कदापि नहीं । वीतराग की वाणी है - माणुस्सं खु दुल्लह ।" मनुष्य बनना कठिन नहीं, मनुष्यत्व को प्राप्त करना ही वस्तुतः कठिन है । मानव देह पाना जीवन का ध्येय नहीं है, जीवन का सच्चा ध्येय है, मानवता को प्राप्त करना, इन्सानियत को पाना ।
मैं कह रहा था कि मनुष्य वह है, जो अपने हृदय में प्रेम और सद्भाव रखता है । मनुष्य वह है, जिसके दिल में दया और अनुकम्पा है । मनुष्य वह है, जो भ्रातृ-भाव की सरस तरंगों में तरंगित है । मनुष्य वह है,
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