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________________ भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी ५ विश्वास भरी परम्परा के विरोध में महावीर और बुद्ध ने अपनी आवाज बुलन्द की, जन बोली में अपने विचारों का प्रकाश फैलाया और वे जन-जन के जीवन में एकाकार होकर जन-नेता, लोक नायक व जनता-जनार्दन बन गए। महावीर और बुद्ध की लीक पर पीछे आने वाली सन्त सेना खूब मजबूत कदमों से चलती रही, जिससे पण्डितों के पैर उखड़ गए। सन्तों ने जनता की आध्यात्मिक नाड़ी को पकड़ा। जनता के जीवन में वे धुल-मिल गए और जनता का सुख-दुःख उनका अपना सुख-दुःख बन गया। सन्तों को चिन्तन धारा गहरी और विराट वनी । परन्तु उनकी भाषा जन बोली रही। जन की भाषा में वे सोचते थे और जनता की बोली में वे बोलते थे। वे विचारों के हिमालय से बोले, तब भी जनता ने समझा और आचार के महासागर के तल से बोले, तो भी जनता ने उन्हें पहचाना । क्योंकि वे सर्व साधारण जनता की अपनी जानी पहचानी बोली में बोलते थे, न कि पंडितों की तरह अटपटी बोली में । फलतः जनता की श्रद्धा और भक्ति की सरिता का मोड़ मुड़ा और पण्डितों से हटकर सन्त चरणों में आ टिका, जन-जीवन की श्रद्धा और भक्ति का केन्द्र सन्त बन गया। आचार्यप्रवर जिनदत्त सूरि जी-जिनकी आप आज यहाँ पर जयन्ती मना रहे हैं, भारत के उन मनीषी सन्तों में से एक थे, जिन्होंने अपने तपस्वी जीवन से और विचार पूर्ण जीवन से भारत की प्रसुप्त जनता को जागृत किया था । जन जीवन में ज्ञान की नयी चेतना और आचार की नव स्फूर्ति भरी थी। उन्होंने अपने प्रखर विचारों का प्रचार मात्र अपनी वाणी के माध्यम से ही नहीं किया, बल्कि अपने विराट चिन्तन की पैनी लेखनी से भी जन भाषा में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का ग्रन्थन व गुम्फन भी किया है। उनका जीवन एक ऐसा जीवन था-जो उत्थान के निमित्त अपने घर में भी लड़ा और अपने प्रसार के लिए बाहर भी झूझता रहा। उनकी विचारधारा से और संयमी जीवन से जन जीवन उत्प्रेरित हो-इसी भावना में उनकी जयन्ती मनाना सार्थक होता है । भारत के महान् सन्तों का जीवन अपने ही अन्तर्बल से पनपा है, उठा है और चला है। उन्होंने अपने विचारों का प्रचार तलवार की ताकत से नहीं, प्रेम की शक्ति से किया है। पण्डितों ने सन्त से पूछा-"तेरा शास्त्र क्या है ?" उत्तर मिला- मेरा चिन्तन और मेरा विचार ही मेरा आचार है मेरा बल और शक्ति है । जन भाषा ही मेरे शास्त्र की भाषा है । सन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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