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अमर-भारती
भारत की संस्कृति का सजग प्रहरी है सन्त, मननशील मुनि और श्रमशील श्रमण । महावीर और बुद्ध के भी पूर्वकाल से प्रकाशमान भारतीय संस्कृति का दैदीप्यमान नन्दा-दीप काल की प्रलम्बता के झोंकों से धूमिल भले ही पड़ता रहा हो, परन्तु परम्परा से चलती आने वाली सन्तों की विचार ज्योति से वह उद्दीप्त होता रहा है और उसकी अजस्र प्रकाशधारा आज भी संसार को स्तम्भित व चकित कर रही है । वस्तुतः भारत की संस्कृति का सच्चा स्वरूप सन्त परम्परा में ही सुरक्षित और सुस्थिर रहा है। भारत का सन्त-भले ही वह किसी भी पन्थ का, किसी भी सम्प्रदाय का और किसी भी परम्परा का क्यों न रहा हो-उसके विचार में, उसकी वाणी में तथा उसके वर्तन में भारतीय संस्कृति का सुस्वर झंकृत होता रहा है। भारत का विचारशील सन्त व्यक्तिशः चाहे किसी भी सम्प्रदाय विशेष में आबद्ध रहा हो, पर विचारों के क्षेत्र में वह लम्बी छलांग भरता आया है।
राजस्थानी सन्त यहाँ की बोली में बोले, जन भाषा में उन्होंने अपने विचारों की किरणों को बिखेरा । मीरा का जन्म राजस्थान में हआ, लालनपालन भी यहीं हुआ, उसने अपने विचारों की लड़ियों की कड़ियों को राजस्थानी जन बोली में ही गूथा, फिर भी मीरा की उदात्त विचारधारा राजस्थान की सीमाओं को लांघ कर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक परिव्याप्त हो गई, फैल गई। राजस्थानी सन्त भले ही राजस्थान में ही रहे हों, तथापि उनकी आवाज अचल हिमाचल की बुलंदियों से लेकर कन्या कुमारी तक जा गूजी, और राजमहलों के ऊँचे सोने के शिखरों से लगा कर घासफूस की झोंपड़ियों तक फैल गई, रम गई। यही बात गुजराती, महाराष्ट्री
और संजाबी सन्तों के जीवन पर भी लागू पड़ती है। अतः भारतीय सन्त बंधकर भी बंधा नहीं, घिर कर भी घिरा नहीं और रुक कर भी रुका नहीं। वह चलता ही रहा और चलता ही चला गया, किसी ने उसे सुना तो ठीक, अन्यथा वह अपनी मस्ती में मस्त होकर गाता रहा और उसकी स्वर लहरी इठलाते पवन के झकोरों में प्रसार पाती रही।
भारतवर्ष का वह एक युग था, जब यहाँ के विद्वान् और पण्डित देववाणी में बोलने के नशे में चूर रहते, संस्कृत भाषा में भाषण करना वे अपने वंश व कूल की निराली शान समझते । महान् हिमालय के उत्तुंग शिखरों से वे जनता को उपदेश व आदेश देते। जनता उनके गूढ़ शब्दों के अर्थ को न समझ कर भी श्रद्धा और भक्ति के नाम पर विनम्र हो जाती। इस अन्ध
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