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मानव की विराट चेतना २५ उसमें हैं, तो समझना चाहिए कि वह सच्चा इन्सान है। स्नेह, सद्भाव और समता का मधुमय स्रोत जिसके मानस-पर्वत से कल-कल करता बहता हो, संसार में उससे बढ़कर मनुष्य और कौन होगा ? शास्त्रकारों ने मनुष्य जीवन को श्रेष्ठता इस आधार पर कही है कि मनुष्य अपने जीवन को जैसा चाहे वैसा बना सकता है, घड़ सकता है। वह अपना नया विकास और निर्माण कर सकता है। अपने अन्तर में सोये पड़े ईश्वरी भाव को साधना के द्वारा जगा सकता है। अपने काम, क्रोध और मोह प्रभृति विकारों को क्षीण कर सकता है। . मैं आपसे कह रहा था, कि मनुष्य के जीवन की महत्ता-त्याग, वैराग्य और स्नेह-सद्भाव में है । त्याग और वैराग्य से वह अपने आपको मजबूत करता है और स्नेह तथा सद्भाव से वह परिवार, समाज और राष्ट्र में फैलता है। व्यक्ति अपने स्वत्व में बन्द रह कर अपना विकास नहीं कर पाता । व्यक्तित्व का बन्धन मनुष्य की आत्मा को अन्दर ही अन्दर गला डालता है । स्व से पर में, व्यष्टि से समष्टि में और क्षुद्र से विराट में फैल कर ही मनुष्य का मनुष्यत्व सुरक्षित रह सकता है। जितने-जितने अंश में मनुष्य की चेतना व्यापक और विराट होती चली जाएगी, उतनेउतने अंशों में ही मनुष्य अपने विराट स्वरूप की ओर अग्रसर होता जाएगा । भगवान महावीर ने कहा है-"जो साधक सर्वात्मभूत नहीं हो पाता, वह सच्चा साधक नहीं है।" मानव ! तेरी महानता तेरे हृदय के अजस्र बहने वाले अहिंसा स्रोत में है, तेरी विशालता तेरी करुणा और दया के अमृत-तत्व में है और तेरी विराटता है-तेरे प्रेम की व्यापकता में । तेरा यह पवित्र जीवन, जिसे स्वर्ग के देव भी प्यार करते हैं-पतन के गतं में गलने-सड़ने के लिए नहीं है, वह है तेरे उत्थान के लिए। तू उठ, तेरा परिवार उठेगा । तू उठ, तेरा समाज' जागेगा। तू उठ, तेरा राष्ट्र भी जीवन के नव स्फुरण और नव कम्पन की नव लहरियों में लहरने लगेगा। व्यक्ति की चेतना की विराटता में ही जग की विराटता सोयी पड़ी है। महावीर की विराट चेतना केवल महावीर तक ही अटक कर नहीं रह गई, वह जग जीवन के कण-कण में बिखर गई । इसी तथ्य को भारत के मनीषी यों कहते हैं -मनुष्य देव है, मनुष्य भगवान है, मनुष्य सब कुछ है । सोधे रास्ते पर चले, तो वह देव ओर भगवान है और यदि उल्टी राह पर चले, तो वह शैतान, राक्षस और पिशाच भी बन जाता है । नरक, स्वर्ग और
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