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________________ श्रमण परम्परा का प्राणवन्त प्रतीक : पर्वराज-पर्युषण श्रमण संस्कृति का मूल-तत्व भोग में नहीं, योग में है । प्रेम से विमुख हो, श्रेय के सन्मुख होना, 'श्रमण-परम्परा का मूल दर्शन है। सन्त-संस्कृति का कल्प-पादप मानव मानस की बाहरी धरती पर नहीं, अन्तस्तल के सरस धरातल पर ही पनपा है, फलता और फूलता है। वहाँ भौतिक सत्ता की महत्ता नहीं, अध्यात्मवादी अन्तर्दर्शन का मूल्यांकन किया जाता है। ___मानव मन के अन्तरंग के माध्यम से चलने वाली सन्त संस्कृति जनजन के मन में एक ही विचार-ज्याति को जन्म देती रही है-"पर का दमन मत करो, अपना करो। पहले अपने को पहचानो, अपने को समझो । अपने दोषों का परिहार करो, दूसरों के गुणों को स्वीकार करो। अन्तस्तत्त्व की ज्योति से ज्योतित करते रहो, अपनी जीवन दोप-शिखा को।" आज का मानव अपने आपको नहीं देखता, वह देखता है, अपने पड़ोसी की ओर । जबकि श्रमण-संस्कृति की सबसे पहली आवाज यह कहती है-"अपने को संभालो साधक ! तू सुधरा, सारा समाज सुधरा । तू सुधरा सारा जग सुधरा।" महावीर पहले सधा, तो हजारों-हजार महावीर पंदा हो गए। एक दोपक की लो हजारों और लाखों दीपों को प्रज्वलित कर ( १४३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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