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________________ १४२ अमर भारती संस्कृति कहती है कि मनुष्य स्वयं ही देवत्व और दानवत्व में से किसी भी एक व्यक्तित्व को चुन सकता है। वह देव बनकर संसार के सामने ऊंचा आदर्श रख सकता है और दानव बनकर जीवन का नाश भी खरीद सकता है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का स्वामी है, जीवन का सम्राट है। विचार और विवेक से वह बहुत ऊँचा उठ सकता है। मनुष्य के विकास में ही समाज और राष्ट्र का भी विकास है और उसके पतन में उनका भी पतन ही है। जैन संस्कृति विचार-स्वतन्त्रता को मुख्यता देती है। अन्धविश्वास, अन्ध-परम्परा और रूढिवाद का विरोध करती है। सत्य जहाँ कहीं भी मिलता हो, ग्रहण कर लेना चाहिए । जो सत्य है, वह सब मेरा है, यह जैन संस्कृति का आघोष रहा है। जैसे दूध में से मन्थन द्वारा घत निकल आता है, वैसे लोक जीवन के मन्थन से जो सत्य निकलता है, वह सब अपना ही है। हां, मनुष्य का मनन और मन्थन क्षीण नहीं हो जाना चाहिए । यदि उसमें विवेक शक्ति नहीं रही, तो फिर अर्थ का अनर्थ भी होते क्या देर लगती है ? __ आज के प्रत्येक धर्म के नीचे इतना कूड़ा-करकट एकत्रित हो गया है कि जिससे धर्म का वास्तविक स्वरूप ही नष्ट होने लगा है। विवेक और ज्ञान के प्रवाह से उसे बहा देना चाहिए। जैन संस्कृति का सीधा विरोध अन्धविश्वास और अज्ञानता से है। ___ भारत के बहुत से लोग कहते हैं, "नर और नारी में बहुत बड़ा भेद है" नारी, नर के समान कार्य नहीं कर सकती । यह भी एक अन्ध-विश्वास है। मेरा अपना विश्वास तो यह है कि क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर सभी कार्यों में नारी ने अपनी विशेषता सिद्ध कर दी है । आत्म-साधना जैसे जटिल तथा विषम मार्ग में भी वह नर से पीछे नहीं रही है । जैन संस्कृति कहती है कि समाज रूपी रथ के नर और नारी बराबर के पहिये हैं, जिससे कि समाज की प्रगति होती रहती है । सत्य के महापथ पर अग्रसर होने वाले नर हों, नारी हों, बाल हों या वृद्ध हों? उन सभी का जीवन समाज और राष्ट्र के लिए मंगलमय वरदान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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