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१३६ अमर भारती
है, परिष्कार करना है । क्योंकि अन्तकाल से वह जंग, माया और वासना के संयोग से अशुद्ध और अपवित्र बना हुआ है ।
कहाँ जाना हैं ? प्रकाश की ओर जाना है। ज्ञान और विवेक की ओर जाना है । असत्य से सत्य की ओर जाना है । वहाँ जाना है, जहाँ से लोटना नहीं पड़े । साधक का साधकत्व कहेगा - " अब हम अमर भये, न मरेंगे ।" जिसने अपनत्व को पा लिया, उसका मरण कैसा ? निजत्व में जिनत्व का संदर्शन करने वाला अजर और अमर हो जाता है ।
मैं आपसे कह रहा था कि साधक वह है, जो अन्धकार से प्रकाश में जाता है या प्रकाश से प्रकाश में जाता है । प्रकाश से प्रकाश में जाने का अर्थ है, अमरत्व प्राप्त कर लेना । अन्धकार से प्रकाश में जाने का तात्पर्य है, पशुत्व-भाव से मानवत्व-भाव में आना, सच्चा इन्सान बन जाना । किन्तु प्रकाश से अन्धकार में जाने का मतलब होगा, मनुष्य से पशु बन जाना | देव से दानव हो जाना । अन्धकार से अन्धकार में जाने का फलि - तार्थ है, कीट पतंगे बनना । पशुत्व भाव से भी अधिक हीनतर और हीनतम स्थिति में पहुँच जाना । यह मिथ्यात्व भाव की दशा है, स्थिति है । जहाँ अन्धकार ही अन्धकार है, भटकना ही भटकना है । जीवन की यह स्थिति बड़ी भयंकर है ।
मैं आपसे कह रहा था कि सच्चा साधक वह है, जो अपने विकार को, अपनी वासना को और अपनी आसक्ति को जीत लेने में समर्थ होता है । अनुकूलता में फूले नहीं और प्रतिकूलता में अपनी राह को भूले नहीं ।
एक मस्त सन्त किसी नगर में पधारे । जनता ने बड़े ही उत्साह के साथ स्वागत किया । राजा और रानी को भी सूचना मिली, वे भी सन्त के दर्शनों को आए । राजा ने सन्त से प्रार्थना की- “मेरे राज भवन को पावन कीजिए ।" सन्त ने अपनी मस्ती में कहा - सभी भवन, राज भवन हैं । परन्तु राजा को अति प्रार्थना पर सन्त राजभवन में जा विराजे । सेवा, भक्ति और सत्कार की क्या कमी थी ! रानी राजा से भी अधिक श्रद्धाशील थी । रहने में, सहने में, खाने में पीने में, सन्त का विशेष ध्यान रखा जाता था । रानी की अति भक्ति ने राजा के मन में संशय खड़ा कर
दिया ।
राजा के मन में विचार आया - गृहस्थ में और सन्त में क्या अन्तर
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