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मंगलमय सन्त-सम्मेलन १८७. भय-सा छा जाता है कि अब क्या होगा ? अन्दर में काना-फूंसी चलने लग जाती है । अजमेर में एकत्रित होने से पूर्व मुझ से पूछा गया कि महाराज, अब क्या होगा? मैंने कहा-“यदि हम मनुष्य है, विवेकशील हैं, तो अच्छा ही होगा।"
साधु जीवन मंगलमय होता है । साधु-सन्त जहाँ कहीं भी एकत्रित होते हैं, वहाँ का वातावरण मंगलमय रहना ही चाहिए। वे जहाँ-कहीं भी रहेंगे, वहाँ प्रेम, उल्लास और सद्भाव की लहरें ही नजर में आएंगी। मुनियों के सुन्दर विचार नयी राह खोज रहे हैं, युग के अनुसार स्वतन्त्र चिन्तन की वेगवती धारा प्रवाहित हो रही है। अब जमाना करवट बदल रहा है । हमें नये युग का नया नेतृत्व करना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने उपयोगी पुरातन मूलभूत संस्कारों की उपेक्षा कर देगें ? वृक्ष का गौरव मूल में खड़ा रहने में ही है, उसे उखाड़ फेंकने में नहीं। हम देखते हैं कि वृक्ष अपने मूल रूप में खड़ा रहता है और शाखा-प्रशाखाएँ भी मौजूद रहती हैं, केवल पत्र ही प्रतिवर्ष बदलते रहते हैं। एक हवा के झोंके में हजारों-लाखों पत्ते गिर पड़ते हैं। फिर भी वह वृक्ष अपने वैभव को लुटता देख कर रोता नहीं। बाग का माली भी वृक्ष को ढूंठ रूप में देख कर दुःख की आहें नहीं भरता, क्योंकि वह जानता है, इस त्याग के पीछे नया वैभव है, नवीन जीवन है।
इसी प्रकार जैन धर्म का मूल कायम रहे, शाखा-प्रशाखाएँ भी मौजूद रहे, यदि इन्हें काटने का प्रयास किया गया, तो केवल लकड़ियों का ढेर रह जाएगा। अतः उन्हें स्थिर रखना ही होगा। किन्तु नियम-उपनियम रूपी पत्ते जो सड़-गल गए हैं, जिन्हें रूढ़ियों का कीट लग गया है, उनमें समयानुसार परिवर्तन करना होगा। उनके व्यामोह में पड़कर यदि उन्हें कायम रखने का नारा लगाते हो, तो तुम नवचेतना का अर्थ हो नहीं समझ पाए हो ? नया वैभव पाने के लिए पुरातन वैभव को विदा देनी ही होगी । उनको स्तीफा दिये वगैर जीवन में नव वसन्त खिल ही नहीं सकता । पतझड़ के समय पुरातन पत्तों को अपनी जगह का मोह त्यागना ही पड़ेगा। अजमेर लाखन कोठरी
.३-४-५२
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