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________________ १५८ अमर भारती कर नहीं करता, सुबह से शाम तक रोता-पीटता और उपालम्भ देता रहता है, तो उसका वह कार्य सुन्दरता की कोटि में नहीं आ सकता। सड़क पर झाड़ लगाने वाला एक हरिजन भाई जन कल्याण की दृष्टि से, जनता के स्वास्थ्य की दृष्टि से, जन सेवा की दृष्टि से और यह समझकर कि मैं भी राष्ट्र या समाज का एक घटक है, उसकी सेवा करना मेरा परम कर्तव्य है, उस कार्य को सुव्यवस्थित और सुन्दर ढंग से करने का प्रयत्न करता है तथा उसके करने में सुख एवं प्रसन्नता अनुभव करता है, तो वह कार्य सर्वांग सुन्दर समझा जाता है। आप अपने कार्य को छोटा और क्षुद्र कार्य मत समझिए । यह कार्य भी उतना ही पवित्र है, जितना कि बड़े से बड़ा कार्य पवित्र हो सकता है। इसके करने में आप गौरव की अनुभूति कीजिए। इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप जीवन पर्यन्त इसी कार्य को करते रहें, दूसरे किसी कार्य को करने के लिए प्रयत्न न करें, पराङ मुख बने रहें । यदि दूसरा कार्य करने की आपके अन्दर क्षमता है, तो उसे भी अवश्य कीजिए। कोई भी कार्य किसी की बपौती नहीं है। कार्य मात्र को करने का जन-जन को अधिकार है। कुछ लोग कहा करते हैं कि वंश परम्परा से जिसको जो कार्य मिला है, उसे वही कार्य करना चाहिए, वही उसकी पैतृक सम्पत्ति है, जिसकी रक्षा करना उसका महान् कर्तव्य हो जाता है । मुझे तो इस विचारधारा के पीछे सिवाय दूसरों के अधिकार अपहरण की चिन्ता के और कोई तत्व दृष्टिगोचर नहीं होता। एक आचार्य ने जात-पात के सम्बन्ध में कितनी सुन्दर बात कही है “जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते।" जन्म लेते समय, जबकि चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार होता है, प्रत्येक मनुष्य की स्थिति शूद्र के समान होती है। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके अच्छे संस्कारों को अपनाता है, अपनी आत्मा को संयम और विवेक के प्रकाश से प्रदीप्त कर जीवन में सच्ची प्रगति करता है, तब वही मनुष्य द्विज बन जाता है । ____ मैंने आपसे कहा था कि अपने आपको छोटा और हीन समझना पाप है । मैं यह नहीं कहता कि नम्रभाव रखना पाप है या अपने को बड़ा समझ कर अहंकार का पोषण करना अच्छा है। परन्तु मैं भी आत्मा हूँ और अपने गुणों का विकास करके मैं भी अपने बन्धन को तोड़ सकता है, यह स्वाभि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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