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यो वै भूमा तत्सुखम् २३ के मन्दिर में जगह क्यों नहीं मिलेगी ? अन्त में महन्त ने प्रसन्न भाव से मन्दिर में ठहरने की जगह दे दी । वहाँ ठहरे, परिचय हुआ। अब तो ज्योंज्यों मन की घुण्डी खुली, महन्त ने अपना निजी कमरा भी खोल दिया । मैंने परिहास की भाषा में पूछा कि पहले तो साधारण स्थान भी नहीं था, इस मन्दिर में और अब आपने अपने सोने-बैठने का कमरा भी खोल दिया है। वह भी हँसा और बोला आप तो कह रहे थे कि मन में जगह चाहिए। मनोमन्दिर में जगह होने से इस मन्दिर में भी जगह हो गई है।
हाँ, तो मैं आपसे कह रहा था कि सबसे बड़ी बात मन की होती है। मन विराट तो विश्व भी विराट, मन छोटा तो दुनियाँ भी छोटी है, तंग है। पहले महन्त के मन में जगह नहीं थी, एक कोठरी भी मिलना कठिन हो गया था और मन में जगह होते ही बढ़िया कमरा भी तैयार। जीवन और जगत का सारा संव्यवहार मानव के मन की विराटता पर चलता है और मानव के मन की तंगदिली पर अटकता है। मन की अटक ही सारे दुःखों की खटक है। जब मनुष्य "मैं और मेरे" के तंग घेरे में बन्द हो जाता है, तब वह सुख-शान्ति और आनन्द प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। परन्तु जब उसके मन में विराट भावना जाग उठती है, तब वह अल्प साधनों में भी सन्तोष के द्वारा सुख लाभ पा लेता है। वह अपनत्व के संकीर्ण घेरे में से निकलकर परिवार, समाज, राष्ट्र और उससे भी बढ़कर विराट विश्व में फैल जाता है। इस स्थिति में पहुँचकर मानव का जागृत मन अपनत्व में समग्रत्व का दर्शन करने लगता है । समग्रत्व के इसी महासागर की तलछट में से मनुष्य ने सुख, सन्तोष, शान्ति और समृद्धि अधिगत करने की अमर कला सीखी है। लाल भवन, जयपुर
१७-७-५५
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