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अमर भारती
जाने वाली है । ऐसी भिक्षा ग्रहण करने वाला 'पापी श्रमण' कहलाता है । उसे भिक्षा करने का अधिकार ही नहीं है ।
पौरुषघ्नी भिक्षा तो दरअसल बन्द होनी ही चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र के 'श्रमण' अध्ययन में पौरुषघ्नी भिक्षा ग्रहण करने वाले श्रमण को 'पाप श्रमण' कहा है । जैन धर्म के सुप्रसिद्ध आचार - शास्त्र 'दशवैकालिक' में कहा है कि
'अत्तट्ठा गुरुओ लुद्धो बहुपावं पकुब्वइ ।'
जो साधु जनता का अन्न-जल ग्रहण करके उसका कुछ भी उपकार नहीं करता, वह पेटू होता है । वह एक बहुत बड़ा पाप कर्म करता है । ऐसी भिक्षा के लिए प्रतिबन्ध लगाना ही चाहिए ।
अब रहा, वर्तमान साधु समाज का प्रश्न ? उसे इस कानून से घबराना नहीं चाहिए ? बल्कि उसे अपनी योग्यता से यह भावना प्रकट करनी चाहिए कि आपका कानून हम पर लागू नहीं हो सकता । हमारा यह भिक्षा पात्र हजार-हजार वर्ष से जनता के द्वार पर पहुँच कर, श्रद्धा और भक्ति से भिक्षा ग्रहण करता रहा हैं । भिक्षा हमारा हक है, अधिकार है । हम गलियों में भटकने वाले भिखारी नहीं हैं, बल्कि साधक हैं ।
आज के साधु समाज को अब सचेत हो जाना चाहिए। नवीन उलझनों से डर कर, दूर भागने का यह समय नहीं है । ऐसे कब तक काम चलता रहेगा ? अपने जीवन, धर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने का यही उपाय है, कि हम स्वयं उसका विरोध करें ।
देहली सदर बाजार
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१४-१०-४८
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