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भिक्षा कानून और साधु समाज' १८१ अधिकारी हैं, हकदार हैं। वह अपने अधिकार के नाते लेते हैं। वह पूज्य हैं, उनकी सेवा करना आपका अपना धर्म है।
इसी प्रकार साधु अपने पारमार्थिक जीवन निर्वाह के लिए समाज से भोजन और वस्त्र ग्रहण करता है । यह उसका अधिकार है, उसका अपना हक है । वह दर-दर का भिखारी होकर भिक्षा ग्रहण नहीं करता। वह अपने तेजस्वी जोवन की छाप डालकर, भिक्षा लेता है। यदि वह अपने जीवन की छाप नहीं डाल सकता, तो वह भिक्षा का अधिकारी भी नहीं है ।
___ ढंढण मुनि का जीवन, आप लोगों में से अनेकों ने पढ़ा होगा या सूना होगा? वह एक महान् साधक था। जैन धर्म को उस 'महान् तपस्वी के जीवन पर गौरब है। वह साधारण घर का नहीं था। भारत के महान् सम्राट श्रीकृष्ण का वह पुत्र था । विशाल राज्य वैभव को ठुकराकर भगवान नेमिनाथ के चरणों में उसने मुनिपद अंगीकार किया था। ओर भिक्षु-जीवन ग्रहण कर उस महान् ज्योति ने कहा था
_ "भगवन्, मैं आज से साधु के नाते और मात्र अपने जीवन निर्वाह के लिए भिक्षा ग्रहण करूंगा। अपने महान् कुल उच्च जाति, माता-पिता और गुरु के नाते दी हुई भिक्षा को कदापि अंगीकार नहीं करूंगा।"
यह है, वह महान् ज्योति ! जो भूले-भटके साधुओं का पथ-दर्शन करती है । यह है, वह गहान् शक्ति-पुज! जिससे हजार-हजार जीवन को शक्ति मिलती है । यह है, त्याग का महान् आदर्श !
ढंढण नुनि जैसी महान् आत्माओं की भिक्षा वृत्ति को कानुन रोक नहीं सकता। विश्व की कोई भी शक्ति उसके विरोध में, अपनी आवाज बुलन्द नहीं कर सकती।
वर्तमान साधु समाज को अपने सम्मुख त्याग का वह आदर्श रखना होगा, जिसे ढंढण मुनि ने अंगीकार किया था। साधु-जीवन, एक ऐसा जीवन हो, जिसे देखकर कानून बनाने वाले स्वयं अपनी भूल समझ कर, उसे रद्द करने को बाध्य हो जाएँ।
वस्तुतः वर्तमान भिक्षा कानून, उस भिक्षा के लिए बना है, जिसे पौरूषघ्नी भिक्षा कहते हैं । जो भिक्षा समाज और राष्ट्र के पुरुषार्थ को नष्ट करने वाली हैं, उसी भिक्षा को रोकने के लिए यह कानून बना है। वह भिक्षा, वास्तव में एक जघन्य पाप है। जीवन को अन्धकार की ओर ले
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