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________________ भारत का राष्ट्रवाद १६५ भारतवर्ष है। यहां का राजा, राजा भी है और प्रजा भी । यह मेरा व्यक्तिगत सिंहासन है और वह मेरी प्रजा का ? प्रजा का कार्य करता है, तभी उस स्वर्ण सिंहासन पर बैठाता हूँ। यह है, भारत का उज्ज्वल राष्ट्रवाद । सम्राट चन्द्रगुप्त का राज-गुरु और अखण्ड भारत का प्रधानमन्त्री आर्य चाणक्य सुनहरी महलों में नहीं, पर्ण कुटी में निवास करता था। रिक्त समय में छात्रों को ज्ञान-दान भी करता था। यह है, भारत का पुरातन प्रजातन्त्र । यह है, भारत की प्राचीन आदर्शमयी राष्ट्रीयता। आज हम फिर भारत में इसी राष्ट्रीयता को देखना चाहते हैं, लाना चाहते हैं । देश क्या है ? और राष्ट्र क्या है ? इस सम्बन्ध में तो सारी जिन्दगी सोचना पड़ेगा। एक दिन और एक घड़ी का सोचा हआ, कुछ काम नहीं आता । सोते और जगते, चलते और बैठते तथा खाते और पीते जैसे मनुष्य अपने व्यक्तित्व को संभाले रखता है, उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन में भी अपना व्यक्तित्व घुल-मिल जाना चाहिए। जैसे मनुव्य अपने व्यक्तित्व की रक्षा करता हैं, उसी भाव से, उसी लगन से राष्ट्र के व्यक्तित्व की रक्षा करना सीखें, तभी राष्ट्र का अभ्युदय सम्भव है ? __स्वामो रामतीर्थ ने लिखा है, कि जब मैं जापान गया था, तब वहां मैंने एक बड़ी सुन्दर घटना देखी। जिस जहाज में, मैं यात्रा कर रहा था, उसी में कुछ हिन्दुस्तानी भी यात्रा कर रहे थे, वे हिन्दू थे। जब उन्हें अपनी विधि के अनुसार निरामिष भोजन नहीं मिला, तब वे लोग जापान तथा उस जहाज के संचालकों की निन्दा करने लगे । पास में बैठा एक तरुण यह सब कुछ सुन रहा था। वह उठा और थोड़ी देर में कुछ फल लाकर हिन्दुस्तानियों को देकर बोला-लीजिए, आपका भोजन तैयार है । हिन्दू सज्जन बोले-बड़ी कृपा की आपने ? इनके पैसे ले लीजिए। उस तरुण ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा- आपकी कृपा है। मुझे पैसों की चिन्ता नहीं है । इसके बदले में, मैं आप लोगों से यह मांगता हूँ कि हिन्दुस्तान में या अन्यत्र कहीं भी जाकर इन शब्दों का प्रयोग न करें-"हमें जापानी जहाज में बड़ी असुविधा रही, भोजन भी नहीं मिला।" प्रिय बन्धुओं ! यह है, राष्ट्रीयता । भारत को आज इसी प्रकार की राष्ट्रीयता की आवश्यकता है। देश का सम्मान, राष्ट्र का गौरव हमारा अपना सम्मान और गौरव बन जाना चाहिए। मजदूर अपने लिए नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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