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________________ जनतन्त्र दिवस १७१ है । जो केवल अपने आप ही वस्त्र पहनता है, वह वस्त्र नहीं, पाप पहनता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने लिए ही सुख-सुविधा की सामग्री जुटाने में व्यस्त रहता है, वह सुख - सामग्री एकत्रित नहीं करता, किन्तु पाप बटोरता है । सहस्रों वर्षों से इतना मौलिक उपदेश मिलते हुए भी हमारा जीवन तदनुरूप नहीं बन पाया, इसका मुख्य कारण यही है, कि हम शास्त्रों का केवल शुक-पाठ करना ही सीखे हैं, इसी में धर्म मान बैठे हैं । किन्तु कार्य तो चिन्तन तथा मनन करने पर ही होगा । जब तक हम शास्त्रों का गहम चिन्तन करके उन्हें जीवन का स्थायी अंग नहीं बनायेंगे, तब तक समाज का, राष्ट्र का एवं विश्व का उत्थान नहीं हो सकता और इनका उत्थान हुए बिना हमारे जीवन का उत्थान होना भी सुतरां असम्भव है, क्योंकि इनके साथ हमारा जीवन-सूत्र अटूट रूप से सम्बन्धित है । भारत सदा कार्य करना सीखा है, बातें बनाना नहीं । उसने दोषमयी दृष्टि से दूसरे की ओर आँख उठाकर देखने का कभी प्रयास नहीं किया है । दूसरा यदि मोह-निद्रा में सोया पड़ा है तो "संबुज्झह किं न बुज्झह" तथा "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत" आदि मधुर-मधुर एवं जीवन स्पर्शी, वचनों द्वारा जागरित करना तो उसका परम कर्तव्य रहा है किन्तु निन्दा तथा आलोचना करना उसकी मनोवृत्ति के प्रतिकूल रहा है । इस दिशा में वह केवल अपनी ओर देखता है तथा अपने ही जीवन का निरीक्षण-परीक्षण करता है । किन्तु आज हम समाज तथा राष्ट्र की कटु आलोचना तो कर देते हैं, टीका-टिप्पणी करने के लिए लम्बे भाषण भी दे सकते हैं, परन्तु जब कार्य करने का समय आता है, तब दायें-बायें झाँकने लगते हैं । बातें बनाना हम अपना कर्तव्य समझते हैं और कार्य करने की आशा हम दूसरों से रखते हैं । इसी भावना के पीछे हमारे पतन के बीज छिपे हैं । यदि हमें अहिंसा का दिब्य सन्देश विश्व को देना है, तो उसकी भूमिका अपने जीवन से ही प्रारम्भ करनी होगी। जीवन में उदारता का प्रसार करने के लिए हृदय को विशाल और विराट बनाना होगा, दूसरे की आशा न रखते हुए प्रत्येक सत्कार्य अपने बाहुबल से करना होगा । किन्तु आज हम एक-दूसरे की दुरालोचना करने में जीवन के अमूल्य क्षण नष्ट कर रहे हैं। मुझे अपनी आँखों देखी घटना याद आ रही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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