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________________ वर्षावास की विदा ८३ मैं आपको एक बात और कह देना चाहता है, कि सन्त एक मधुकर है, सन्त एक भ्रमर है । जहाँ सुरभि और रस मिलता है, वहाँ वह अवश्य ही आस-पास के वातावरण को अपने सुमधुर गुंजार से झंकृत करता हुआ जा पहुँचता है । संघ को वह पुष्प बनाना चाहिए, जिसमें मधु और सुरभि दोनों हों, सन्त मधुकरों को बिना किसी निमन्त्रण आमन्त्रण के स्वयं ही श्रद्धाशील संघों का आकर्षण होता रहे । सन्त गुण-ग्राही होता है । संघ में जो सद्गुण हैं, श्रद्धा, भक्ति और सद्भाव हैं, उनको वह पवन की भाँति दूर-दूर ले जाकर फैला देता है। आपके जयपुर संघ की जो श्रद्धा, भक्ति और सेवा है, उसे हम भूल नहीं सकते । मैं अस्वस्थ होने के कारण आपकी विशेष ज्ञान-सेवा नहीं कर सका । इस बात का मुझे अवश्य विशेष विचार रहा है। किन्तु मैं तो आशावादी हूँ और आप को भी आशावादी होने की सतत प्रेरणा देता रहा हूँ । सन्त जन धनसम्पत्ति के नहीं, भावना के भूखे होते है । आपकी भावना में आकर्षण रहा, तो जाने वाले सन्त भी आप से दूर नहीं रह सकेंगे। आपके यहाँ वर्षावास में मैं बहुत ही अल्प प्रवचन कर पाया हूँ, क्योंकि अस्वस्थ रहा है। फिर भी जो दे पाया हूँ, वह मुक्त हृदय से सत्य की परख के रूप में दिए हैं । मैं अपने विचार व्यक्त करते समय एक मात्र सत्य की निष्ठा का ही ध्यान रखता हूँ। अतः मेरे विचार कभी-कभी श्रोताओं के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अन्तर मन में सहज रूप में प्रवेश नहीं कर पाते । विचार भेद मत-भेद के रूप में तन कर खड़े हो जाते हैं। किन्तु एक बात मैं स्पष्ट कह देता हूँ कि मत-भेद भले ही हों, परन्तु मनोभेद नहीं होना चाहिए । विचार चर्चा कितनी ही गर्म क्यों न हो, परन्तु मन गर्म नहीं होना चाहिए । जीवन का यह सत्य तथ्य पा लिया, तो फिर किसी प्रकार का भय नहीं रहता। आप और हम सब आनन्द के मधुर क्षणों में अपनी धर्म साधना कर सकेंगे । गुलाब निवास, जयपुर ३०-११-५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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