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हरिजन दिवस ७५ हरिजन दोनों मानव है । दोनों में परस्पर सद्भाव और सहयोग को आवश्य. कता है । दोनों में ऊंच और नीच की कल्पना एक भ्रान्त भावना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । आप जरा मेरी बात पर गम्भीरता से विचार कीजिए-"ब्राह्मण, क्षत्रिय, महाजन और हरिजन इन सब का शरीर पञ्चभूतात्मक है कि नहीं ? व्राह्मण का शरीर स्वर्ण को हो, क्षत्रिय का शरीर रजत का हो, महाजन का देह लोह का हो और हरिजन का देह मिट्टी का हो यह बात तो सही नहीं है न? अन्ततो गत्वा ये समस्त शरीर हाड़-मांस, रक्त और मज्जा से ही निर्मित है । सब के अन्दर मल, मूत्र और गन्दगी का ढेर ही तो है न । फिर तीन वर्ण पवित्र और एक अपवित्र इसका मूलभूत आधार क्या है ?"
जैसी भूख और प्यास अभिजात्य वर्ण को सताती है, वैसी हरिजन को भी । दुख-सुख की जैसी अनुभूति सवर्ण कहे जाने वाले लोगों को होती है, वैसी, अस्पृष्य कहे जाने वाले को भी । एक नीच और शेष ऊँच इसका कारण क्या ? हाड़, मांस और रक्त में जात-पात नही होती । वह तो मनुष्य मात्र के शरीर में एक ही रूप का वहता है । आँसुओं में भी जात-पात नहीं होती जैसे खारे आँसू ब्राह्मण के हैं, वैसे ही एक हरिजन के भो । मनुष्य जन्म से ही ललाट पर तिलक व गले में जनेऊ पहन कर नहीं आता-ये सब मनुप्य की कल्पना से प्रभूत है। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य जाति व कुल से कभी महान् नहीं होता। उसकी महानता के अमर आधार हैं-सत्कर्म, पवित्र भावना और शुभ संकल्प । श्रमण परम्परा का यह जोरदार दावा है कि अहिंसा, संयम और तप की साधना करने वाला कभी क्षुद्र, शूद्र और नीच नहीं हो सकता । आत्मा की समुज्ज्वलता के समक्ष देह की मलिनता की कोई गणना नहीं। मन पवित्र है, तो तन की मलिनता कोई विशेष महत्व नही रखती । एक भारतीय तत्ववेत्ता इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहता है
"अत्यन्त मलिनो देहो,
देहित्वमत्यन्त निर्मलः ।" देह भले ही मलिन हो, परन्तु देह वाला आत्म-देव कभी मलिन नहीं होता । वह तो अपने आप में अत्यन्त निर्मल है, पवित्र है। भारत का दर्शन, भारत का धर्म और भारत की संस्कृति कभी देह पूजा की बात नहीं कहती। वह जब कभी कुछ कहती-खुनती है, तब आत्म-पूजा की बात कहती है ।
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