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७६ अमर-भारती आत्म तत्व की मलिनता अवश्य ही भारत के विचारशील मानस के लिए. गहरी चिन्ता का कारण हो सकती है, परन्तु देह की मलिनता उसके लिए कभी खतरे का बिन्दु साबित नहीं हो सकी। कारण स्पष्ट है, कि भारत को संस्कृति देह को नहीं, देही को ही महत्व देती है । आत्मा अत्यन्त निर्मल है, जैसा महाजन शरीर में, वैसा हरिजन देह में ।
. श्रमण विचार धारा आत्मा के सम्बन्ध में यह धारणा लेकर चली है कि आत्मा के तीन रूप हैं-प्रकृति विकृति और संस्कृति । आत्मा मूल रूप में शुद्ध है, पवित्र है, निर्मल है। परन्तु कषायों के संयोग से उसमें विकृति आई है । उस विकृति को पूरा करने का प्रयत्न ही संस्कृति अथवा साधन है । आचार्य नेमिचन्द्र कहता है “सव्वे सुद्धाहु सुद्धनया ।" कीट-पतंग से से लेकर समस्त जीव सृष्टि शुद्धनय से निर्मल व पवित्र है। शुद्धनय की अपेक्षा से संसारो आत्मा में और सिद्ध की आत्मा में कोई भेद नहीं, कोई अन्तर नहीं। फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और हरिजन में भेद कहाँ से टपक पड़े हैं। जब आत्मा में किसी प्रकार का भेद नहीं, तो भौतिक शरीर में विभेद की रेखा कैसे खींची जा सकतो है । आत्मा मूल स्वरूप में प्रकृत है, कषाय एवं विषय के संयोग से विकृत बना हुआ है, उसे संस्कृत करना यही मानव जीवन का ध्येय है । यह जीवन संस्कृति, जीवन साधना और जीवन शुद्धि जो भी कर सके वह महान् है। भले वह देह से ब्राह्मण, हो, क्षत्रिय हो, महाजन हो या हरिजन हो ?
भारत के एक तत्वचिन्तक मनीषी ने इस सत्य-तथ्य को समझने के लिए एक सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है। वह कहता है, आलंकारिक भाषा में-"हर गन्दी नाली के कण-कण मैं पावन गंगा बह रही है।" बात आपको अवश्य ही अटपटी लगी होगी, परन्तु जव मेरे श्रोता विचार सागर में गहरी डुबको लगा कर सोचेंगे तो बात का तथ्य स्पष्ट होते देर न लगेगी। विचार की अलंकृत भाषा का फलितार्थ यह है कि यह पंचभूतात्म देह गन्दी नाली है और उसके कण-कण में शुद्ध चैतन्य तत्व की पावनी निर्मल गंगा प्रतिक्षण व प्रतिपल प्रवाहित हो रही है। क्षुद्र कीट से लेकर सिद्ध साधक तक उसकी शुद्ध रूप में एक स्थिति है।
मैं आपसे कह रहा था कि श्रमण-परम्परा जीवन की पवित्रता में विश्वास लेकर चली है । वह जन्म से पवित्रता में विश्वास नही रखती। कर्म से प्रसूत पवित्रता में ही उसकी निष्ठा रही है । किसी ने ब्राह्मण के घर
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