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________________ ६६ अमर भारती रहता है । जहाँ निराकुलता है, वहाँ दुःख भी सुख बन जाता है, आनन्द बन जाता है, अन्तर केवल दृष्टि का है । पदार्थ एक ही होने पर भी दृष्टि भेद से परिणाम भेद हो जाता है । सुख में फूलना नहीं और दुःख में घबराना नहीं - "यह साधक का परम लक्षण है ।" आपने एक बार क्या ! अनेक बार सुना होगा कि महामुनि स्कन्दक के देह की चमड़ी मृत पशु की चमड़ी की तरह जीवित दशा में ही उतारी जाती रही, किन्तु उनके मुख मण्डल पर प्रसन्नता खेलती रही । तरुण तपस्वी गज सुकुमार मुनि के मस्तक पर आग के धधकते अँगारे रखे गए, किन्तु वे समभाव के सागर में गहरे ही उतरते रहे । शान्त और दान्त बने रहे, क्षमा श्रमण बने रहे । मैं आप से पूछता हूँ कि इसका कारण क्या ? क्या उनको पीड़ा नहीं हो रही थी ? दैहिक दुःख-दर्द तो उनको भी हुआ ही होगा ? किन्तु उनको वह समदृष्टि अधिगत हो गई थी, जिससे उन्होंने दुःख को दुःख ही नहीं माना । दुःख और कष्ट का कारण उन्होंने बाहर नहीं देखा, अपने अन्दर ही देखा । वे विचार करते थे, मनुष्य जो कुछ भी भोगता है, वह अपने कर्मों का ही फल भोगता है । कर्म सिद्धान्त का यही तो अमर सन्देश है, कि भूल करो, तो फल भी भोगने को तैयार रहो । सम्यग्दृष्टि की विचारणा में यही जादू है । सच्चा साधक तो विष को भी अमृत बना लेता है | सच्चा साधक मृत्यु के महाकराल मुख में जाता हुआ भी यही कहेगा- " देह विनाशी, मैं अविनाशी, Jain Education International अजर-अमर चित मेरा ।" जैन सिद्धान्त का कहना है, कि एक बार सत्य दृष्टि मिली तो फिर बेड़ा पार है । जैसे सूत्र सहित सुई खो जाने पर भी शीघ्र ही मिल जाती है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि कदाचित संसार में भटक भी जाये, तो भी अपने आपको सम्भाल लेता है । वह गिरकर भी सदा के लिए नहीं गिरता है । जैसे रबर की गेंद को जमीन पर पटकने पर वह और अधिक वेग से ऊपर उछलती है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी सदा ऊर्ध्वगामी रहता है । कभी गिर भी पड़ेगा, तो वापिस दूने वेग से ऊपर उठेगा । संसार में तीन प्रकार के जीव है - एक वे जो कभी गिरते नहीं, दूसरे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001352
Book TitleAmarbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, L000, & L005
File Size10 MB
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